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Wednesday 12 June 2019

छत्तीसगढ़ी गजल - दिलीप कुमार वर्मा

एक्के बहर मा दिलीप कुमार वर्मा के पाँच गजल


दिलीप कुमार वर्मा: - गजल (1)
2122 2122 212

आदमी मरके मरे नइ जान ले।
जेन के अच्छा करम हे मान ले।

प्यार बाँटे बर सदा तइयार हे।
ओ करम अच्छा करे पहिचान ले।

दुख रहे ले जे खड़े हे संग मा।
आदमी ओ आदमी भगवान हे।

जे भला सब के करे बर सोचथे।
मान अइसे लोग ही इंसान हे।

मिल जही कतको इहाँ अइसे तको।
जे भला लागे मगर बइमान हे।

काम आथे आदमी ओ आदमी।
नइ करे जे काम ओ सइतान हे।

कर भला तब तो अमर होबे दिलीप।
मन लगा सेवा म जब तक जान हे।

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दिलीप कुमार वर्मा: - गजल (2)

2122 2122 212

अति कभू हो जाय कोनो बात जी।
तब समझलव मार देथे लात जी।

बड़ सुहाथे जब गिरे पानी सखा।
पर डरा देथे बढ़े बरसात जी।

घाम हाड़ा बर बने होथे कहे।
पर जला देथे बढ़े जे तात जी।

साँझ कन निकले सबो घूमत रहे।
पर डरा देथे ओ घपटे रात जी।

चाहथे सबझन गुलाबी जाड़ ला।
पर सहे नइ जाय ठंडा घात जी।

साँस बर सब ला हवा चाही इहाँ।
जे बने तूफान बिगड़े बात जी।

आग बिन खाना बने नइ मानथौं।
पर बढ़े जे आग देथे मात जी।

चाहथे पानी रहय नदिया सबो।
बाढ़ दिखलाथे हमर अवकात जी।

हे गरीबी सोंच झन जादा दिलीप
छटपटावत हे अमीरी रात जी।

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दिलीप कुमार वर्मा: - गजल (3)

2122 2122 212

मोर घर ला देख के घबरा जथे।
कोन कहिथे सुख सबो घर आ जथे।

बाँस बल्ली मा टिके छान्ही हवय।
जब कभू आथे हवा उड़िया जथे।

जब बरसथे बून्द पानी के इहाँ।
खाट तक डोंगा बने उफला जथे।

जाड़ मा जस देंह ठिठुरे कटकटा।
मोर घर दीवार हर थर्रा जथे।

घाम बर छइहाँ बने सबके महल।
मोर घर भितरी सुरुज हर आ जथे।

चेरका हन दे हवय दीवाल हा।
देश के नक्शा बने मन भा जथे।

खाय खातिर तोर घर होही सबो।
मोर घर पसिया तको सरमा जथे।

डेहरी ले जे भगाये हव अपन।
मूँड़ बर सब छाँव इहँचे पा जथे।

का मिले कखरो करा रो के दिलीप।
मौत सब ला एक दिन तो खा जथे।

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दिलीप कुमार वर्मा: - गजल (4)

2122 2122 212

एक दिन आही महू ला आस हे।
हार नइ मानँव जहाँ तक साँस हे।

बालटी ला डार के तीरत हवँव।
बून्द तक हा मोर बर तो खास हे।

छोंड़ के कइसे भला जावँव बता।
मोर माटी मोर तन के पास हे।

राह जोहत हँव उहू आही इहाँ।
ओखरो तो नइ बुझाये प्यास हे।

पेंड़ के पंछी उड़े आकाश मा।
लौट के आही इहें बिसवास हे।

पेंड़ के पाना सहीं झरगे सबो।
मोर हाड़ा रेंगथे जस लास हे  

देख आवत हे अभी करिया दिलीप।
सोर होवत हे बरसही आस हे।

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दिलीप कुमार वर्मा: - गजल (5)

2122 2122 212

मँय घटा करिया के होवत शोर औं।
चुप कराले दे मया मँय तोर औं।

तोर घर के देहरी मा हे कुकुर।
भूँक थे ता लागथे मँय चोर औं।

पा मया हरिया जहूँ कहिके कहे।
तँय बता का मँय खनाये बोर औं।

डूब के रइहूँ कहे तँय मोर ले।
तँय बता का साग के मँय झोर औं?

जब घटा आथे निटोरत रहि जथस।  
नाच के दिखला कहे ,का मोर औं?

बाँध के रखबे कहे परिवार ला।
का समझथस ,मँय ह कोनो डोर औं?

नाम मोरो हे बतावत हँव दिलीप।
तँय हुदर के बोलथस ,का ढोर औं?

गजलकार - दिलीप कुमार वर्मा
बलौदा बाज़ार, छत्तीसगढ़

4 comments:

  1. बहुत ही शानदार गजल लेखन अउ संकलन, गुरुदेव ।सादर प्रणाम सहित हार्दिक बधाई

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  2. बहुत सुघ्घर सृजन हे भाई

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  3. एक से बढ़के एक ग़ज़ल,सबो गजल शानदार हे भैया जी।

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  4. वाहहहह!बहुत खूब

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