गजल
बहरे मुतकारीब मुसमन सालिम
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
बहर- 122 122 122 122
घरो घर सफाई ल मजदूर करथे।
लिपाई पुताई ल मजदूर करथे।
भरे अन्न कोठी सबो के घरो घर।
फसल के कटाई ल मजदूर करथे।
बड़ा शान मारे दिखाके अटारी।
ओ ईंटा चुनाई ल मजदूर करथे।
बड़े कारखाना के मालिक भले तँय।
तुँहर बर कमाई ल मजदूर करथे।
बनाये हवच बांध छेंके नदी ला।
पछीना तराई ल मजदूर करथे।
बुझावत हवच प्यास पानी पलो के।
नहर के खुदाई ल मजदूर करथे।
दिखावत चलत हच पहिर जेन कपड़ा।
उहू के सिलाई ल मजदूर करथे।
रहे रेशमी या कि सूती के लुगरा
सबो के कताई ल मजदूर करथे।
बनाये पहाड़ी बड़े भव्य मंदिर।
ओ पथरा चढ़ाई ल मजदूर करथे।
लगे जाड़ भारी त कइसे बचे तँय।
ओ स्वेटर बुनाई ल मजदूर करथे।
कभू जान आफत फँसे जिंदगी मा।
तुँहर बर लड़ाई ल मजदूर करथे।
रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार छत्तीसगढ़
बहरे मुतकारीब मुसमन सालिम
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
बहर- 122 122 122 122
घरो घर सफाई ल मजदूर करथे।
लिपाई पुताई ल मजदूर करथे।
भरे अन्न कोठी सबो के घरो घर।
फसल के कटाई ल मजदूर करथे।
बड़ा शान मारे दिखाके अटारी।
ओ ईंटा चुनाई ल मजदूर करथे।
बड़े कारखाना के मालिक भले तँय।
तुँहर बर कमाई ल मजदूर करथे।
बनाये हवच बांध छेंके नदी ला।
पछीना तराई ल मजदूर करथे।
बुझावत हवच प्यास पानी पलो के।
नहर के खुदाई ल मजदूर करथे।
दिखावत चलत हच पहिर जेन कपड़ा।
उहू के सिलाई ल मजदूर करथे।
रहे रेशमी या कि सूती के लुगरा
सबो के कताई ल मजदूर करथे।
बनाये पहाड़ी बड़े भव्य मंदिर।
ओ पथरा चढ़ाई ल मजदूर करथे।
लगे जाड़ भारी त कइसे बचे तँय।
ओ स्वेटर बुनाई ल मजदूर करथे।
कभू जान आफत फँसे जिंदगी मा।
तुँहर बर लड़ाई ल मजदूर करथे।
रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार छत्तीसगढ़
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