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Friday 28 August 2020

ग़ज़ल -आशा देशमुख*

 **ग़ज़ल -आशा देशमुख*


*बहरे कामिल मुसम्मन सालिम*

*मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन* *मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन*

*11212 11212 11212 11212*


सुनो जिंदगी के ये खेल मा, कभू हार हे कभू जीत हे।

कभू सुख बसे हे घाम मा, कभू तो लुभाय ये शीत हे।


का लिखाय हे यहू जान ले ,तहीं पढ़ अपन खुदे हाथ ला,

जेन पढ़ सके तोर आँख ला, उही ला समझ सही मीत हे।


इहाँ रोज रोज कमात हस,कहाँ ले जबे तेँ सकेल के

कभू भीतरी ल भी देख ले,ये भराय मन मया प्रीत हे।


ये बजात हे कोई रोज धुन,सुनो टेर देके जी कान ला

ये हवा नहर के हिलोर मा,सबो जग जहाँन म गीत हे।


नही आय काम जी छल गरब,कभू सोच झन तेँ जुगाड़ बर

इहीं हे जनम इहीं हे मरण,इही तो जगत के जी रीत हे।



आशा देशमुख

एनटीपीसी जमनीपाली कोरबा

गजल- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

 गजल- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बहरे कामिल मुसम्मन सालिम
मुतफ़ाइलुन  मुतफ़ाइलुन  मुतफ़ाइलुन  मुतफ़ाइलुन
11212  11212  11212  11212  

करे जा करम धरे जा धरम, तभे तो मिले इँहा मान हा।
बढ़ा पाँव नेक डगर मा तैं, सुनै बोल सच दुनो कान हा।।

कमा नाम खूब अपन तहूँ, बढ़ा मान देश समाज के।
ददा दाई के करौ सेवा ला, उगै रोज नवा बिहान हा।।

कहाँ अब नँदागे सुपा तवा, दिनों दिन नवा नवा खोज हे।
दिखे हाइब्रिड अनाज अब, उगे आज कम चना धान हा।

मिले राख मा इही देह हा, बता फेर का के गुमान हे।
जिया मोह लेथे मया भरे, सदा मीठ बोली जुबान हा।।

धरौ सत्यबोध के सीख ला, करे ज्ञान के सदा गोठ जे।
सबो दान ले बड़े हे कहे, लहू ज्ञान शिक्षा के दान हा।


इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध" 
बिलासपुर ( छत्तीसगढ़ )

छत्तीसगढ़ी ग़ज़ल-सुुुखदेेेव


छत्तीसगढ़ी ग़ज़ल-सुुुखदेेेव 

बहरे कामिल मुसम्मन सालिम*
मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन

11212 11212 11212 11212

दिये हे मजूरी मकाम घर ये शहर नगर ये शहर नगर
ये ल छोड़ नइहे गुजर-बसर ये शहर नगर ये शहर नगर

सुबे देख ए ला के दिन बुड़त के खरे मॅंझनिया के रात के
खड़े रात-दिन हे सम्हर-पखर ये शहर नगर ये शहर नगर

चले डोंगरी के पहाड़ ले के ओ गॉंव टोला दुवार ले
इहाॅं आ थिराथे ग हर डगर ये शहर नगर ये शहर नगर

जे ल लागथे ओ ह जागथे मनोकामना धरे भागथे
इहॉं रात होय न दोपहर ये शहर नगर ये शहर नगर

हरे केन्द्र अन्न के ज्ञान के जघा हर जरूरी समान के
इहॉं मौसमी सबे फूल फर ये शहर नगर ये शहर नगर

ओ रहे सकय नहीं चार दिन पेंड़ी गॉंव मा जुना ठॉंव मा
जे ल ये शहर के परे टकर ये शहर नगर ये शहर नगर

हो'ॲंजोर'जल्दी निराश झन बुता-काम रोज हजार ठन
चिन्ह के हुनर के करे कदर  ये शहर नगर ये शहर नगर

-सुखदेव सिंह'अहिलेश्वर'

                                                        गजल- दुर्गा शंकर ईजारदार

                                                        गजल- दुर्गा शंकर ईजारदार

                                                        बहरे कामिल मुसम्मन सालिम

                                                        मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
                                                        11212 11212 11212 11212

                                                        धरे हाथ मा धरे हाथ ला कभू बैठ झन तैं उदास रे,
                                                        कभू हार हे कभू जीत हे इही सोच भरले उजास रे।।

                                                        नसा नास करथे रे जान ले कभू जान के कभू मान के,
                                                        तहूँ गाँठ बाँध ले बात ला तैं तो छोड़ दे नसा बास रे।।

                                                        जुआ खेल मा नहीं बाँचे गा सरी जायदाद तो चल अचल,
                                                        कभू भूल के भी तो खेल झन जुआ बर तो  तैं परी तास रे।।

                                                        कहाँ आज मनखे खुशी हवय कहाँ आज मनखे हँसत हवय,
                                                        हवै आज मनखे निराश गा दिखे जान नइये हे लास रे।।

                                                        कहाँ नीम के दिखे छाँव गा कहाँ सुमता के दिखे गाँव गा,
                                                        कहाँ राम लीला के ठाँव हे कहाँ कृष्ण लीला के रास रे।।

                                                        दुर्गा शंकर ईजारदार -सारंगढ़(छत्तीसगढ़)

                                                        छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया

                                                         छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया

                                                        बहरे कामिल मुसम्मन सालिम
                                                        मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
                                                        11212 11212 11212 11212

                                                        लगे जोर थोर ढलान बर, बना ले निसेनी मचान बर।
                                                        धरे हस खड़ग गा मियान बर, गुरू नइहे फेर गियान बर।

                                                        बिना नाम के करे काम कोन, दिखावा बड़ हे चलत इहाँ।
                                                        बने पथरा कोन हा नेंव के, मरे मनखे मन सबे मान बर।

                                                        सबे फ्रीज के जमे खात हन, त का ताजा के हवे चोचला।
                                                        तभो डर समाये हे कार जी, बता बासी चटनी अथान बर।

                                                        मुँदे आँख ला धरे हस डहर, उठे हे जिया मा गरब लहर।
                                                        मया तोर उरके सियान बर, का करत हवस रे बिहान बर।

                                                        गढ़े सपना दूल्हा नवा नवा, चले बेटी बाबू मुड़ी नवा।
                                                        उठे माँग हे घड़ी घोड़ा के, ददा धन सकेले टिकान बर।

                                                        जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
                                                        बाल्को, कोरबा (छग)

                                                        छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                         छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                        बहरे कामिल मुसम्मन सालिम
                                                        मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
                                                        11212 11212 11212 11212

                                                        मिले हाँ मा हाँ बने काम बर, कभू मोर मुख नही बोले झन।
                                                        झरे मंदरस के असन बचन हा, जहर भुला घलो घोले झन।

                                                        रमे काम मा सदा मन रहे, बिना काम के मिले मान ना।
                                                        रहे मोर नित बने लत नियत,जिया लोभ मा कभू डोले झन।

                                                        सदा राख भाई ल भाई कस, दिखा आँख ल दाँत झन कटर।
                                                        बने वो भरत बने वो लखन, ढहा लंका भेद ल खोले झन।

                                                        धरे हौं विपत धरे हौं दरद, तभो ले सड़क ठिहा घर गढ़ौ।
                                                        महूँ आँव मनखे के रूप काठ, समझ कोई छोले झन।

                                                        दिये हे जनम खपा तन बदन, सदा रात दिन करे हे जतन।
                                                        मया हे कतिक ददा दाई के, उठा ऊँगली कोई तोले झन।

                                                        जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
                                                        बाल्को, कोरबा(छग)

                                                        गजल- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

                                                         गजल- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"
                                                        बहरे कामिल मुसम्मन सालिम
                                                        मुतफ़ाइलुन  मुतफ़ाइलुन  मुतफ़ाइलुन  मुतफ़ाइलुन
                                                        11212  11212  11212  11212  

                                                        सुना गीत प्रेम रखे सखा, उगे चाँदनी नवा रात हे।
                                                        लगा ले गला दिखे जे दुखी, बने मीत के इही बात हे।।

                                                        खिले फूल सुंता मया धरे, रहे द्वेष बैर कभू नही।
                                                        गढ़े जा कहानी नवा नवा, दिनों दिन जवानी बुढ़ात हे।।

                                                        पड़े लोभ मोह के फेर मा, करे तैं खुशी ला खुँवार जी।
                                                        कहे जे ला मोर अपन सदा, उही धोखा जाल बिछात हे।।

                                                        लहू रंग एक हवय सुनौ, बड़े कोंन जाति बता भला।
                                                        कहे संत गुरु सदा बात ये, धरे स्वार्थ मनखे भुलात हे।।

                                                        कहे सत्यबोध सदा सही, धरे लोग बात कहाँ इँहा।
                                                        सजे धर्म ढोंग बजार जग, रखे शौंक झूठ बिसात हे।।


                                                        इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध" 
                                                        बिलासपुर ( छत्तीसगढ़ )

                                                        Monday 17 August 2020

                                                        छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                         छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                        बहरे कामिल मुसम्मन सालिम
                                                        मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
                                                        11212 11212 11212 11212

                                                        चले गाड़ी देख अमीर के, हे अटारी देख अमीर के।
                                                        दबे नाँव रइथे गरीब के, हे पुछारी देख अमीर के।1

                                                        कई झन अघाड़ी कई पिछाड़ी, बने फिरै सदा दिन इँखर।
                                                        गुणी ज्ञानी मन घलो रोज करथे, बिगारी देख अमीर के।2

                                                        खुदे बेंचा जा ठिहा ठौर सुद्धा, तभो रकम लगे हाथ ना।
                                                        फले नइ फुले तभो दाम देथे, गा बारी देख अमीर के।3

                                                        रहे मन गरीब के तीर ना घलो, बोलथे सगा मन चलो।
                                                        सही सपना का सबे संग पटथे, गा तारी देख अमीर के।4

                                                        कहाँ थेभा फुटहा नसीब के, कहाँ कोई साथी गरीब के।
                                                        रथे चोर संग घलो सिपैहा, पुजारी देख अमीर के।5

                                                        जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
                                                        बाल्को, कोरबा(छग)

                                                        छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                         छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                        बहरे कामिल मुसम्मन सालिम
                                                        मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
                                                        11212 11212 11212 11212

                                                        का बताँव मोर का हाल हे, बिना जर के जइसे रे डाल हे।
                                                        का भरोसा आन के मैं करँव, इहाँ छइहाँ घलो काल हे।1

                                                        उहू आँख मूंद के बइठे हे, तहूँ सिर झुकाय लुकात हस।
                                                        उठे हाथ नइ घलो देश बर, का लहू मा तोर उबाल हे।2

                                                        मया मीत माँगे मिले नही, कभू भाग मोर खिले नही।
                                                        कुँवा बावली हा कहाँ ले भरे, इहाँ तो पियासे पताल हे।3

                                                        कहाँ सत डहर उहाँ सुख लहर, बने मन सदा सहे दुख दगा।
                                                        बिना सत घलो खुले भाग, झूठ बजार मा तो उछाल हे।4

                                                        कहाँ जिंदगी हे कहाँ मौत हे, सबे तीर मनखे मनके खौफ हे।
                                                        डरे मनखे मन लड़े मनखे मन, कहाँ सुलझे कोनो सवाल हे।5

                                                        जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
                                                        बाल्को, कोरबा(छग)

                                                        ग़ज़ल ---आशा देशमुख

                                                         ग़ज़ल ---आशा देशमुख

                                                        *बहरे रजज मखबून मरफू मुखल्ला*

                                                        मुफाइलुन  फाइलुन फ़उलुन मुफाइलुन  फ़ाइलुन  फ़उलुन

                                                        1212  212  122  ,1212 212 122


                                                        परत हे हाँका गली डहर मा, तिहार तीजा बुलात नइहे
                                                        कहाँ ले आये हवय करोना ,भगाय कतको भगात  नइहे।

                                                        अगास धरती हवा हे एके,नदी कुँआ मा हे एक पानी
                                                        बटाय मजहब धरम म मनखे,लगाय आगी बुझात नइहे।

                                                        सुमत के घर म करव बसेरा,इही सरग हे इही हे ईश्वर
                                                        भले लगाए हे भोग छप्पन ,मया बिना तो मिठात नइहे।

                                                        धरे दुकानी करे मिलावट ,करत हवँय देख बेईमानी
                                                        मिलात हें अन्न मा जे कंकड़ ,चना उही ला चबात नइहे।

                                                        कमा कमा के पढाय लइका,घुमत हवय बस शहर नगर मा
                                                        करत हे संसो ददा अउ दाई,जवान लइका कमात नइहे।

                                                        आशा देशमुख
                                                        एनटीपीसी जमनीपाली कोरबा

                                                        गजलकार-चोवा राम वर्मा'बादल-'

                                                         गजलकार-चोवा राम वर्मा'बादल-'

                                                        *बहरे कामिल मुसम्मन सालिम*
                                                        *मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन*
                                                        11212 11212 11212 11212

                                                        खवा के वो मोहनी मोला पगला बना डरे बही जान ले
                                                        सँगे जीना मरना सँगे मा परही कसम से तैं बने ठान ले

                                                        भरे हे दगा के गहिर कुआँ गिरे मा परान का बाँचही
                                                         न भरोसा हे न तो आसा हे आ बँचाही भाई मितान ले

                                                        सरी दुनिया डंका हा बाजथे अरे देख झन गड़ा के नजर
                                                        लमा झन अपन बड़े झंडा हे बड़े का तिरंगा के शान ले

                                                        हे बचन के पक्का सदा निभाथे परन जे वो कभू ठानथे
                                                        कभू अजमा ले डिगे भारतीय नहीं अपन दे जुबान ले

                                                        सरू जे निचट वो किसानी मा  रमे बड़ पछीना  गिराथे
                                                        महा पाप झोली मा भरथे करथे जे छल कपट जी किसान ले


                                                        चोवा राम वर्मा 'बादल'
                                                        हथबंद, छत्तीसगढ़

                                                        गजल-अरुण निगम

                                                        गजल-अरुण निगम

                                                        बहरे कामिल मुसम्मन सालिम
                                                        मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
                                                        11212 11212 11212 11212

                                                        कभू छाँव हे कभू घाम हे इही जिंदगी के दू रंग हे
                                                        कभू दुख चले धरे हाथ ला कभू सुख के दू घड़ी संग हे।

                                                        ये दिवार कोन उठात हे कभू जात के कभू धर्म के
                                                        तहूँ सोच ले महूँ सोचहूँ  मचे भाई भाई म जंग हे।

                                                        सबो रीत नीत बिसार के पढ़े बर विदेश म जात हस
                                                        इहाँ के असन जी तैं जान ले उहाँ रंग हे न त ढंग हे।

                                                        उड़े जब छुवै ये अगास ला, कभू झाप खा के छुवै भुईं
                                                        नहीं जोर ककरो चलै कभू यहू ज़िन्दगी त पतंग हे।

                                                        सरी रात-रात के जागथन, दुनों जाने का-का बिचारथन
                                                        ये दे आगी प्रीत के रे 'अरुण' यहू लंग हे वहू लंग हे।

                                                        *अरुण कुमार निगम*

                                                        छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                         छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                        *बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला*

                                                        मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                        1212 212 122 1212 212 122

                                                        कहाँ कहाँ तैं तलासी लेबे, घरे मा हे चोर अब बतातो।
                                                        अपन समझ जेला तैं खवाये, बरय उही डोर अब बतातो।1

                                                        उमर पुरत हे मनुष मनके, तभो करे लोभ धन रतन के।
                                                        बने जुवारी चले दुवारी, खवात हे खोर अब बतातो।2

                                                        कुकुर गजब घूम घूम खाँसे, गधा लदाये तभो ले हाँसे।
                                                        खुसुर खुसुर जौन खाय बैठे, दिखात हे लोर अब बतातो।3

                                                        कहाँ पहुँच मा अकास हावै, लमाय मा हाथ जे छुवावै।
                                                        सियार हा बघवा ले लड़े बर, लगात हे जोर अब बतातो।4

                                                        रटत रतन धन मरत हरत हस, हकर हकर जिनगी भर करत हस, 
                                                        मरे मा छूटे सरी कमाई, हरे काय तोर अब बतातो।5

                                                        जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
                                                        बाल्को, कोरबा(छग)

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    *बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला*

                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122

                                                                                                    कटे नही रोये मा घलो दिन, जिया जुड़ाये हँसेल लगथे।
                                                                                                    उँचाय खातिर महल अटारी, नँवान बनके धँसेल लगथे।

                                                                                                    तड़प तड़प जब हवै गा मरना, ता छल प्रपंच ले का हे डरना।
                                                                                                    मिटाय बर भूख मीन बनके, गरी घलो मा फँसेल लगथे।

                                                                                                    मया मा माया मिंझर जथे जब, बचन ले मनखे मुकर जथे तब।
                                                                                                    उड़े पड़े जब मतंग मन हा, लगाम तब तो  कँसेल लगथे।

                                                                                                    बदन मइल हा घलो निकलथे, घँसे मा  चमके रचे कढ़ाई।
                                                                                                    मइल ह्रदय के रे धोय खातिर,गियान गुण सत घँसेल लगथे।

                                                                                                    जहर बचन मा रथे सदा दिन, चलत रथस टेंड़गा सुमत बिन।
                                                                                                    उदर अगिन के बुझाय खातिर, का अपने मन ला डँसेल लगथे।

                                                                                                    जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
                                                                                                    बाल्को,कोरबा(कोरबा)

                                                                                                    Friday 14 August 2020

                                                                                                    गजल -दिलीप वर्मा

                                                                                                     गजल -दिलीप वर्मा


                                                                                                    बहरे रजज़ मख़बून मरफू मुख़ल्ला 
                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन
                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122

                                                                                                    सम्हल सम्हल के कदम बढावव बिछाय काँटा हवय डगर मा। 
                                                                                                    जगा जगा मा मिले मुसीबत बहुत समस्या हवय सफर मा।

                                                                                                     बढ़े जे आगू त साँप हावय हटे जे पाछू कुँआ खनाये। 
                                                                                                    करम के रस्सी तको ह टूटे लटक गये हन इहाँ अधर मा।

                                                                                                    बहुत मिलावट हे आजकल तो सबो खजानी जहर भराये
                                                                                                    मगर जहर मा तको मिलावट कहाँ मरे आजकल जहर मा  

                                                                                                    हवा तको मा जहर घुले हे बिना लगाए न मास्क निकलव।
                                                                                                    उही बचे हे इहाँ सुरक्षित रहे खुसर के सदा जे घर मा।

                                                                                                    बिना बिचारे जे काम करथे समे परे ले अरझ जथे जी। 
                                                                                                     विचार मंथन सदा उचित हे मिले सफलता सबो डहर मा। 

                                                                                                    रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 
                                                                                                    बलौदाबाजार छत्तीसगढ़

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी मुकम्मल गजल- मनीराम साहू‌ 'मितान'

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी मुकम्मल गजल- मनीराम साहू‌ 'मितान'

                                                                                                    बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला

                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122

                                                                                                    अपन बनौकी तहूॅ बनाले, रमाय रख मन किसन‌ कन्हैया।
                                                                                                    भजन‌ के गंगा डुबक नहाले, रमाय रख मन किसन‌ कन्हैया।

                                                                                                    हटर हटर मा बुड़े रथच गा, कमाय के धुन‌ चढ़े हवय बड़,
                                                                                                    असल‌ रतन ले लगन‌ लगाले, रमाय रख मन किसन‌ कन्हैया।

                                                                                                    पहा जही जी सबो हा देखत, कमाय धन जन सबो सरेखत,
                                                                                                    समे रहत हरि मदन मना ले, रमाय रख मन किसन‌ कन्हैया।

                                                                                                    कहत रथच जे जिनिस ला मोरे, सबो हवय गा निसार माया,
                                                                                                    अपन बनक‌ बर मुॅहू लमा ले, रमाय रख मन किसन‌ कन्हैया।

                                                                                                    कहाॅ भटकथस जतर खतर गा, हवय सबो सुख किसन शरन मा,
                                                                                                    छुटय चरन‌ झन बने जमा ले, रमाय रख मन किसन‌ कन्हैया।

                                                                                                    असल‌ समे मा ये काम आही, बॅधाय गठरी सॅगेच जाही,
                                                                                                    बने धरम पुन‌ रहत कमाले, रमाय रख मन किसन‌ कन्हैया।

                                                                                                    नटत हवच तैं मनी बचन ले, जपन‌ करे बर दिये रहे गा,
                                                                                                    अपन धनी ले मया जगा ले, रमाय रख मन किसन‌ कन्हैया।

                                                                                                    मनीराम साहू 'मितान'

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल-चोवा राम वर्मा'बादल'

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी गजल-चोवा राम वर्मा'बादल'

                                                                                                    *बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला*

                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122

                                                                                                    अबड़ हे मँहगा जी दिल के सौदा लड़ाबे आँखी बिचार करके
                                                                                                    हँसे ल परथे गिरा के आँसू सँजोये सपना खुवार करके

                                                                                                    कभू बिछुड़ना कभू हे मिलना दरद के धुर्रा चले बड़ोरा
                                                                                                    तभे सजन के झलक हा मिलथे अगिन के दहरा ल पार करके

                                                                                                    अजब हवै प्रेम हा लोग कहिथें  परान देके निभाथें कतकों
                                                                                                    इहाँ कहानी सुने ल मिलथे अमर हे राँझा पियार करके

                                                                                                    जमाना बैरी सदा रहे हे  अभो मरत हे सलीम प्रेमी
                                                                                                    खड़े हे नफरत कली चुनाही धरे हे खंजर ल धार करके

                                                                                                    डगर मुहब्बत के तो कठिन हे सहज समझबे  नही जी 'बादल'
                                                                                                    कफन बने मूँड़ बाँध लेबे तहूँ अपन सुख उजार करके

                                                                                                    चोवा राम वर्मा 'बादल'
                                                                                                    हथबंद, छत्तीसगढ़

                                                                                                    ग़ज़ल-ज्ञानु

                                                                                                     ग़ज़ल-ज्ञानु


                                                                                                    बहरे रजज मखबून मरफ़ू मुखल्ला
                                                                                                    मुफाइलुन फाइलुन फ़उलुन मुफाइलुन फाइलुन फ़उलुन
                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122

                                                                                                    बने नजर ला जमाय रखबे बिछे हे काँटा कदम कदम मा
                                                                                                    सम्हल के चलबे बने रे भाई खनाय गढ्ढा कदम कदम मा

                                                                                                    खड़े इहाँ घेर देख रसता अपन लगे नइ बिरान भाई
                                                                                                    हवय अबड़ आज चलना मुश्किल मिले हे बाधा कदम कदम मा

                                                                                                    का गोठियावँव का दुख बतावँव नता इहाँ छिन मा टूट जाथे
                                                                                                    बने समझबूझ जोर रिश्ता टुटय भरोसा कदम कदम मा

                                                                                                    अलग अलग रूप धर के बइठे ठगत हवय रोज रोज माया
                                                                                                    पता नही कोन रूप मा मिल जही ये ठगिया कदम कदम मा

                                                                                                    बढ़त दिनोंदिन नशा सुवारथ फँसत हे नादान बनके मनखे
                                                                                                    भटक जबे झन रे 'ज्ञानु' मिलही कहूँ ये तोला कदम कदम मा

                                                                                                    ज्ञानुदास मानिकपुरी

                                                                                                    Wednesday 12 August 2020

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल- मनीराम साहू‌ 'मितान'

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी गजल- मनीराम साहू‌ 'मितान'

                                                                                                    बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला

                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122

                                                                                                    धरम करम ला हवयॅ भुलाये, कुछू ला कोनो डरयॅ नही जी।
                                                                                                    कथें हवय ये नवा जमाना, बड़े घलो ला बरयॅ नही जी।

                                                                                                    गुनय नही जी अपन ददा ला, अबड़ सताथे अपन के दाई,
                                                                                                    हवय भले वो सॅचार लइका, बुता तियारे करय नही जी।

                                                                                                    तरी तरी अउ पिका जमत हे, दुबी बढ़त हे दुराचरन के,
                                                                                                    प्रयास कतको भले करव तुम, बिना खने जर मरय नही जी।

                                                                                                    गॅवाय बर कुछ अपन ला परही, हवय कहूॅ कुछ जिनिस ला पाना।
                                                                                                    भले रहय ऊॅच झाड़ केरा, बिना कटे अउ फरय नही जी।

                                                                                                    पढ़े भले नइ हवय बबा हा, कढ़े हवय बड़ हवय मयारू,
                                                                                                    कहय सबो के बनात बनकत, तभो ले कोनो धरय नही जी।

                                                                                                    कतिक लुकाबे बुड़ो के पानी, उफल जही सच के छोट कठवा,
                                                                                                    सुताय रख ले दबाय लद्दी, कभू सरोये सरय नही जी।

                                                                                                    रखय गुमानी भले बड़े हे, छिमा बिना जी हृदय हे खॅइता,
                                                                                                    कहय मनी हरि भजन‌ करे बिन, कभू ये चोला तरय नही जी।

                                                                                                    मनीराम साहू 'मितान'

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी मुकम्मल गजल- मनीराम साहू‌ 'मितान'

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी मुकम्मल गजल- मनीराम साहू‌ 'मितान'

                                                                                                    बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला

                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122

                                                                                                    परे डगर मोह लोभ चिखला, अटक जही का गुनत रथवॅ मैं।
                                                                                                    लगत हवय मन‌ परे दुबट्टा, भटक जही का गुनत रथवॅ मैं।

                                                                                                    करत रथे बस अपन‌ मने के, सही गलत नइ करय चिन्हारी,
                                                                                                    भराय लद्दी कपट के डबरा, सटक जही का गुनत रथवॅ मैं।

                                                                                                    कहाॅ जनाथे अपन गलत हा, गलत दुसर के निकाल रखथे,
                                                                                                    अबड़ अकड़थे सबन नजर मा, खटक जही का गुनत रथवॅ मैं।

                                                                                                    परो के धन बर नजर गड़ाथे, धरे सुवारथ मया बढ़ाथे,
                                                                                                    जुआॅ असन ये असत् के मूड़ी, चटक जही का गुनत रथवॅ मैं।

                                                                                                    बिगाड़ पासा रखे हवय ये, ममा शकुनि कस‌ चलाय गोंटी,
                                                                                                    तरी न‌ उप्पर कहूॅ अधर मा, लटक जही का गुनत रथवॅ मैं।

                                                                                                    हवय मगन ये भुलाय सॅइता, हदर हदर बड़‌ करे हदरहा,
                                                                                                    सुनय नही ये सबो के बाॅटा, गटक जही का गुनत रथवॅ मैं।

                                                                                                    रखे हवय बड़ गुमान पोंसे, लगय कभू ये हवय गा इत्तर,
                                                                                                    कथे मनी सत् सॅगे मा रइहूॅ, मटक जही का गुनत रथवॅ मैं।

                                                                                                    मनीराम साहू 'मितान'

                                                                                                    ग़ज़ल ---आशा देशमुख

                                                                                                     ग़ज़ल ---आशा देशमुख

                                                                                                    *बहरे रजज मखबून मरफू मुखल्ला*

                                                                                                    मुफाइलुन  फाइलुन फ़उलुन मुफाइलुन  फ़ाइलुन  फ़उलुन

                                                                                                    1212  212  122  ,1212 212 122

                                                                                                    फँसे न फांदा मा एक चिंगरी,भगाय मछरी बने जनिक हे।
                                                                                                    बने नहा गोड़ ला लमाके ,तलाब पचरी बड़े जनिक हे।

                                                                                                    बनव अमरबेल जी कभू झन,खुदे बनव पेड़ मेड़ माटी
                                                                                                    नवा नवा बीज ला उगावव,हृदय के बखरी बड़े जनिक हे।

                                                                                                    उही देवइया उही रखैया ,जगत रचे हे जगत रचैया
                                                                                                    जिंखर तरी जीव नींद सूते,बनाय कथरी बड़े जनिक हे।

                                                                                                    धरे हे काड़ी खनत हे खचुवा, कहत हवय अब पड़त हे सुख्खा
                                                                                                    गहिर कुआँ मा भरे हे पानी, करम के रसरी बड़े जनिक हे।

                                                                                                    खवात खावत दुसर भरोसा,चुनाव मा बोकरा कटावय
                                                                                                    अपन कमाई चिंआँ बिसाये,कहय ये कुकरी बड़े जनिक हे।


                                                                                                    आशा देशमुख
                                                                                                    एनटीपीसी जमनीपाली कोरबा

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गज़ल- चोवा राम वर्मा'बादल'

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी गज़ल- चोवा राम वर्मा'बादल'

                                                                                                    बहरे रजज मखबून मरफ़ू' मुखल्ला

                                                                                                    मुफाइलुन फाइलुन फ़ऊलुन मुफाइलुन फाइलुन फ़ऊलुन
                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122


                                                                                                    हमन हवन मन ले हार माने कहाँ बने कस सँवर जी पाबो
                                                                                                    परे हवन छोइहा बरोबर कहाँ बने कस कदर जी पाबो

                                                                                                    मिलै नहीं पेज हा बरोबर हँकर हँकर के हमन कमाथन
                                                                                                    बँचै नहीं कुछ उँकर तो मारे कहाँ  ले हम पेट भर जी पाबो

                                                                                                    कुलुप अँधेरा कुटी समाये महल जगाजग अँजोर भारी
                                                                                                    गरीब के गर बँधे लचारी झुके कमानी कमर जी पाबो

                                                                                                    पढ़न लिखन अउ लड़न बने हम अपन सबो हक अगर हे पाना
                                                                                                    अलग नहीं एक साथ होके तभे सरग ला अमर जी पाबो

                                                                                                    गड़ा के मूँड़ी बहुत चले हन उठा के मूँड़ी नजर मिलावन
                                                                                                    जवाब ईंटा के मार पथरा कसर निकालत असर जी पाबो

                                                                                                    चलाक मन के समझ चलाकी चलन हमूँ चाल गोटी मारे
                                                                                                    तभेच शकुनी ममा के आगू ढुला के पासा ठहर जी पाबो

                                                                                                    जगा के आसा करे भरोसा किसान कस हम बजाके जाँगर
                                                                                                    असाड़ आही बरसही 'बादल' गली ढुलोही बतर जी पाबो

                                                                                                    चोवा राम वर्मा'बादल'
                                                                                                    हथबंद, छत्तीसगढ़

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल .दुर्गा शंकर ईजारदार

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी गजल .दुर्गा शंकर ईजारदार

                                                                                                    बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला

                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122

                                                                                                    धरम करम ला भुलाके तैंहर मया पिरित मा भुलाये हावस,
                                                                                                    हँसी ठिठोली भुलाके बइहा तैं थोथना ला फुलाये हावस।।

                                                                                                    लगे हवय अस्पताल ताला करे हवस स्कूल ताला बंदी,
                                                                                                    जगा जगा मा तैं दारू भठ्ठी बड़े बड़े तो खुलाये हावस।।

                                                                                                    धरे रा गठरी तैं आस के गा तभे तो हिम्मत हा काम आही,
                                                                                                    कमर बने कस के तैं तो उठ जा नजर तैं काबर झुकाये हावस।।

                                                                                                    नवा जमाना के आय फैशन बिगाड़ डारे हवस चलन ला,
                                                                                                    टुरा जनम ला धरे हवस अउ तैं कान बाली झुलाये हावस।।

                                                                                                    बिना कमाई भरे नहीं गा हो चाहे चाँटी या पेट हाथी,
                                                                                                    धरे जनम आदमी तैं दुर्गा जवान जाँगर चुराये हावस।।

                                                                                                    दुर्गा शंकर ईजारदार
                                                                                                    सारंगढ़ (छत्तीसगढ़)

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    *बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला*

                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122

                                                                                                    बने बनाये बुता बिगड़थे, घुचुर पुचुर अउ करे मा जादा।
                                                                                                    कते उपर तैं उँचाबे उँगली, भराय बैरी घरे मा जादा।।

                                                                                                    चिढ़ाय मा चिढ़ जथे बने मन, फटर फिटिर करथे बड़ तने मन।
                                                                                                    अपन करा झन बला बला ला, नमक चुपर झन जरे मा जादा।

                                                                                                    बने बने बर बुता बने कर, जिया लुभा सबके फूल अउ फर।
                                                                                                    अँड़े भले रह गियान गुण बिन, नँवेल पड़थे फरे मा जादा।।

                                                                                                    अकास थुकबे तिहीं छभड़बे, खने कुआँ मा खुदे हबरबे।
                                                                                                    भभक भभक खुद के जिवरा जरथे, दुवेष पाले बरे मा जादा।

                                                                                                    कभू बना पथरा कस जिया ला, कभू पिघल जा रे मोम बनके।
                                                                                                    कभू बने काँच धीर खो झन, डराय जिवरा डरे मा जादा।

                                                                                                    जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
                                                                                                    बाल्को, कोरबा(छग)

                                                                                                    Monday 10 August 2020

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल-चोवा राम 'बादल'

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी गजल-चोवा राम 'बादल'

                                                                                                    *बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला*

                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122

                                                                                                    अपन दरद ला कहाँ बताबे दरद बढ़इया जगा जगा हें
                                                                                                    हँसी उड़ाहीं सुने कहानी नमक लगइया जगा जगा हें

                                                                                                    धरम धजा हा जिहाँ फहरथे तिहों डकैती परत जी रहिथे
                                                                                                    बँचे कहाँ हे पुलिस कछेरी अबड़ ठगइया जगा जगा हें

                                                                                                    बिना धराये रकम ग भइया चलय नहीं पेन वो बड़े के
                                                                                                    खिसा मा पइसा हवै बताबे खिसा भरइया जगा जगा हें

                                                                                                    बिपत परे मा हवै अकेला हिरक निहारयँ नहीं ग कोनो
                                                                                                    बने बने मा बदे मितानी सगा मनइया जगा जगा हें

                                                                                                    दही मही दूध हा मिलै नइ गली गली दारू हा मिलत हे
                                                                                                    नकार देहीं पिये ला अमरित जहर पियइया जगा जगा हें

                                                                                                    बहिन के भइया किसन कन्हैया हवैं अभो बात सिरतो ग मानौ
                                                                                                    कफन लपेटे जटायु हाबयँ परन निभइया जगा जगा हें

                                                                                                    गरब घड़ा फूट जाही फट ले समे बड़ोरा उड़ा ले जाही
                                                                                                    गहिर हे 'बादल' कुआँ हा कतका उहू नपइया जगा जगा हें

                                                                                                    चोवा राम 'बादल'
                                                                                                    हथबंद, छत्तीसगढ़

                                                                                                    गजल -दिलीप वर्मा

                                                                                                     गजल -दिलीप वर्मा

                                                                                                    बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू' मुखल्ला 
                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाऊलुन
                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122

                                                                                                    लहू बहा के मिले अजादी, बिगड़ न जावय सम्हाल राखव। 
                                                                                                    नजर गड़ाये हवय परोसी, न लूट खावय सम्हाल राखव।

                                                                                                    बना के भाई मया लुटाये, मगर दगा वो करे हमेसा। 
                                                                                                    भले बटे एक बार धरती, न फिर बँटावय सम्हाल राखव।

                                                                                                    बबा बनाये रहिस घरौंदा, उजाड़ डारिस हवय ग नाती।
                                                                                                    लुटा लुटा के कमाये धन ला,मजा उड़ावय सम्हाल राखव। 

                                                                                                    कटात जावत हे पेड़ भारी, उजाड़ जंगल वीरान होगे।
                                                                                                    दलाल भुुइयाँ खुसर के देखव, न घर बनावय सम्हाल राखव। 


                                                                                                    दसा बिगाड़त हे चंद मनखे, दिशा सुधारे सबो ल परही। 
                                                                                                    बनत रहिन हे जे चोर राजा, न फेर आवय सम्हाल राखव।

                                                                                                    रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 
                                                                                                    बलौदाबाजार छत्तीसगढ़

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल- मनीराम साहू‌ 'मितान'

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी गजल- मनीराम साहू‌ 'मितान'

                                                                                                    बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला

                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122

                                                                                                    भरे हवय छल कपट भगा के, अपन‌ बनौकी चलव बनाबो।
                                                                                                    बसन‌ रॅगन‌ नइ हृदय रॅगा के, अपन‌ बनौकी चलव बनाबो।

                                                                                                    बुता कमाबो अपन ससन भर, हमन‌ बहाबो अपन पछीना,
                                                                                                    नठाय किस्मत अपन जगा के, अपन‌ बनौकी चलव बनाबो।

                                                                                                    बनत बिगड़थे बनत उजरथे, रहय करू झन गा बोल भाखा,
                                                                                                    मया पिरित मा हमन ठगा के, अपन‌ बनौकी चलव बनाबो।

                                                                                                    घुॅचन नही हम करे ले करतब, परन करिन गा हमन सबो झन,
                                                                                                    छिनाय दॅइयत अपन नॅगा के, अपन‌ बनौकी चलव बनाबो।

                                                                                                    छिनात हाबय हमार भुइयाॅ, सुते रबो तव उचकही बइरी,
                                                                                                    अपन‌ हृदय के अगिन दगा के, अपन‌ बनौकी चलव बनाबो।

                                                                                                    अमात हाबय जहर बदन‌ मा, घुरत हवय नित धुआं पवन मा,
                                                                                                    जघा जघा रुख हमन लगा के, अपन‌ बनौकी चलव बनाबो।

                                                                                                    रटन धरे हे मनी ह एके, हवयॅ मनुज मन सबो बरोबर,
                                                                                                    दुवा भुॅयाॅ ले हमन टॅगा के, अपन‌ बनौकी चलव बनाबो।

                                                                                                    - मनीराम साहू 'मितान'

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    *बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला*

                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122

                                                                                                    तुम्हर दरद हा पहाड़ जइसे, हमर दरद का दिखावटी हे।
                                                                                                    हमन हवन जइसे तइसे दिखथन, तुम्हर चरित्तर बनावटी हे।

                                                                                                    कहाँ महक फूल फर मा हावै, कहाँ चँउर दार हा मिठावै।
                                                                                                    कहाँ के आरुग कुछु हा मिलथे, सबे जिनिस तो मिलावटी।

                                                                                                    जतन रतन धन के सब करत हे, अपन अपन रट मरत हरत हे।
                                                                                                    अजब गजब आगे हे जमाना, मया घलो हा गुँरावटी हे।
                                                                                                     
                                                                                                    भुखाय मरगे तड़प तड़प के, जियत हे कतको हड़प झड़प के।
                                                                                                    गरीब के घर मा नइहे छानी, अमीर के घर सजावटी हे।

                                                                                                    गियान गुण बिन बने हे बड़खा, हवै कलमकार कोरी खरखा।
                                                                                                    पढ़य गुणय अउ सुनय सबे के, कलम मा ओखर कसावटी हे।

                                                                                                    जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
                                                                                                    बाल्को,कोरबा(छग)

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    *बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला*

                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122

                                                                                                    सबे बदलथे ता तैं बताना, का एक जइसे रही जमाना।
                                                                                                    अपन करम तैं करत बढ़े जा, झझक झने का कही जमाना।

                                                                                                    सहीं के सँग मा गलत घलो हे, फलत हवै ता गलत घलो हे।
                                                                                                    बिचार करके कदम बढ़ाना, अपन डहर खींचही जमाना।।

                                                                                                    बबा ददा पुरखा नइ तो होइस, उहू घलो आज होत हावै।
                                                                                                    शराब सँग हे कबाब सँग हे, अभी तो अउ मातही जमाना।

                                                                                                    चढ़े हवै तोला रंग येखर, लगय हँसी ठठ्ठा  जंग येखर।
                                                                                                    सम्हल के चल रे मतंग मानव, बचा तभे बाँचही जमाना।

                                                                                                    चटक चँदैनी ये चारदिनिया, बने बने ला नपा पछिनिया।
                                                                                                    नयन उघारे रबे नही ता, डुबा दिही रे यही जमाना।

                                                                                                    जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
                                                                                                    बाल्को, कोरबा(छग)

                                                                                                    ग़ज़ल ---आशा देशमुख

                                                                                                     ग़ज़ल ---आशा देशमुख

                                                                                                    *बहरे रजज मखबून मरफू मुखल्ला*

                                                                                                    मुफाइलुन  फाइलुन फ़उलुन मुफाइलुन  फ़ाइलुन  फ़उलुन

                                                                                                    1212  212  122  ,1212 212 122

                                                                                                    किसम किसम के बहर मिलत हे ये काफिया के अकाल होगे
                                                                                                    इँहा उहाँ ले रदीफ़ खोजे ,बने ग़ज़ल तो कमाल होगे।

                                                                                                    अलग अलग रंग हे सबो के,लिखाय सब बर अलग कहानी 
                                                                                                    तुँहर मुड़ी मा लगे हे चंदन,हमर मुड़ी बर गुलाल होगे।

                                                                                                     बदल बदल के ये पाख आये,कभू अँजोरी कभू अँधेरी
                                                                                                    कुलुप अमावस में बार दीया, गली डहर बर मशाल होगे।

                                                                                                    हे एक साँचा ढलाय मनखे,बटाय यजु जाप आचमन मा
                                                                                                    जले हृदय जोत एक भीतर,कहूँ खुदा रब दयाल होगे।

                                                                                                    करय भगीरथ अबड़ तपस्या,तभे तो दउँड़त हे आय गंगा
                                                                                                    सरग बरोबर लगय ये भुइयाँ, भगत जगत सब निहाल होगे।

                                                                                                    आशा देशमुख
                                                                                                    एनटीपीसी जमनीपाली कोरबा

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गज़ल- ज्ञानुदास मानिकपुरी

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी गज़ल- ज्ञानुदास मानिकपुरी

                                                                                                    बहरे रजज मखबून मरफ़ू' मुखल्ला

                                                                                                    मुफाइलुन फाइलुन फ़ऊलुन मुफाइलुन फाइलुन फ़ऊलुन
                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122

                                                                                                    जियँव का मेहा मरँव का मेहा तही बताना तही बताना
                                                                                                    समझ न आये करँव का मेहा तही बताना तही बताना

                                                                                                    इहाँ सुखावत हवै फसल मन कहाँ  बिलमगे तै आज बादर
                                                                                                    त बनके बदरा गिरँव का मेहा तही बताना तही बताना

                                                                                                    सुने हँवव नाम तोर चलथे इहाँ उहाँ सब जगह म डंका
                                                                                                    चरण ल तोरे परँव का मेहा तही बताना तही बताना

                                                                                                    पता हवै सच ये बात दू चार दिन के मेहमान हम सब
                                                                                                    इहाँ सकेलँव धरँव का मेहा तही बताना तही बताना

                                                                                                    करम धरम पाप पुन्य अउ मोह लोभ के बस बरत हे आगी
                                                                                                    कतक ल रोजे जरँव का मेहा तही बताना तही बताना

                                                                                                    ज्ञानु

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    *बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला*

                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122

                                                                                                    अमीर कतको ले ले करजा, इती उती मुँह लुकात हावै।
                                                                                                    कमा कमा के किसान बपुरा, लिये सबे ऋण चुकात हावै।

                                                                                                    गरब हे मोला हरौं गँवइहाँ, चलौं धरा संग डार बँइहाँ।
                                                                                                    हमर उपर नित धरा के धुर्रा, गुलाल जइसे बुकात हावै।

                                                                                                    सजे हवै सोने सोन पुतरी, सुनार के सिर बँधाय सुतरी।
                                                                                                    फसल उगइया भुखात हावै, धनुष धरइया तुकात हावै।

                                                                                                    कलंक हा का दबे दबाये, अँड़े खड़े तौन मेंछराये।
                                                                                                    झुके फरे फर मा जेन बिरवा, हवा धुका अउ झुकात हावै।

                                                                                                    दुवा मिलत हे अभो बने ला, सुनाय गारी गिरे सने ला।
                                                                                                    जिंखर परे चाल मा हे कीरा, उँखर उपर अभो थुकात हावै।

                                                                                                    जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
                                                                                                    बाल्को, कोरबा(छग)

                                                                                                    Saturday 8 August 2020

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल-अरुण कुमार निगम *बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला*


                                                                                                    गजल-अरुण कुमार निगम


                                                                                                    *बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला*

                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122



                                                                                                    जिंकर कृपा ले बने तैं राजा, गरीब मन के तैं मान रख ले
                                                                                                    अनाज खाबे तभे त जीबे, किसान मन के धियान रख ले।

                                                                                                    धरे न सांगन कटारी मा तैं, बखत परे मा का काम आही
                                                                                                    लड़ाई होही ता मात खाबे, तैं कतको महँगी मियान रख ले। 

                                                                                                    बिहान होते निकल गए जी, कमाए खातिर दू-चार पइसा
                                                                                                    मँझन कलेवा कहाँ ले पाबे, तैं बोरे-बासी अथान रख ले।

                                                                                                    तैं नौकरी मा कमाबे पैसा, बिहाव करबे बनाबे कोठी
                                                                                                    घरे ला मंदिर बना ले बाबू, ददा दाई कस सियान रख ले।

                                                                                                    समय के धारा मा तन मछरिया बुढ़ाही कतको जतन करे मा
                                                                                                    'अरुण' कहय धीर धर के बाबू तैं मन के फाँदा जवान रख ले।

                                                                                                    अरुण कुमार निगम



                                                                                                    ग़ज़ल ---आशा देशमुख

                                                                                                     ग़ज़ल ---आशा देशमुख

                                                                                                    *बहरे रजज मखबून मरफू मुखल्ला*

                                                                                                    मुफाइलुन  फाइलुन फ़उलुन मुफाइलुन  फ़ाइलुन  फ़उलुन

                                                                                                    1212  212 122  1212  212 122

                                                                                                    टुरा परे हे इशक मुशक मा ,गधी घलो हा परी दिखत हे
                                                                                                    रुके न पतरी में झोर पनियर,मया ला अंडा करी दिखत हे।

                                                                                                    भरे हे नदिया नहर कुआँ सब ,हँसत मछंदर हा डाल जाली
                                                                                                    कहत मदन चल रे अब दुकालू ,सबो डहर अब गरी दिखत हे।

                                                                                                    अपन अपन भाग मा कमाये,कहूँ भरे हे कहूँ हे जुच्छा
                                                                                                    गरीब घर के  तको  गलीचा,धनी हा वोहा दरी दिखत हे।

                                                                                                    मया के आँखी ले देख बइहा,हवय जगत हा अबड़ सुहावन
                                                                                                     कोनो ला दिखथे हे श्याम सुंदर,कोनो ला बिलवा खरी दिखत हे।

                                                                                                    मनाय पार्टी रखे बफर हे,पनीर शाही रखे मखाना
                                                                                                    कहाँ लुकाये हे स्वाद जिभिया ,हमर नज़र मा बरी दिखत हे।

                                                                                                    आशा देशमुख
                                                                                                    एनटीपीसी जमनीपाली कोरबा

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"


                                                                                                    *बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला*


                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन


                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122


                                                                                                    रही कहूँ घर के ना ठिकाना, का नींद आही तिंही बताना।

                                                                                                    सबे सुनावत रही गा ताना,  का नींद आही तिंही बताना।1


                                                                                                    मिले मया ममता के ना बोली, दिखे जलत सुख खुशी के होली।

                                                                                                    गड़ी घलो चाहही हराना,  का नींद आही तिंही बताना।2


                                                                                                    बरत रही डोरी गर कँसे बर, कहत रही अउ कहूँ हँसे बर।

                                                                                                    अबक तबक दीया हे बुझाना,का नींद आही तिंही बताना।3


                                                                                                    चटक मटक मा सबे जमे हे, रतन खजाना मा मन रमे हे।

                                                                                                    हवे हवा मा महल बनाना,, का नींद आही तिंही बताना।4


                                                                                                    खुशी जुटाके अपन भरोसा, बने करम करबे खाके धोखा।

                                                                                                    हुदर हुदर दुख दिही जमाना, का नींद आही तिंही बताना।5


                                                                                                    जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    बाल्को, कोरबा(छग)

                                                                                                    गजल-दिलीप वर्मा

                                                                                                     गजल-दिलीप वर्मा

                                                                                                    बहरे रज़ज मख़बून मरफू मुखल्ला 

                                                                                                    मुफ़ाईलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाईलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122  


                                                                                                    उहाँ अमीरी न हे गरीबी जिहाँ मया के बजार भाई। 

                                                                                                    सजे सजाये सबो मिलत हे जिहाँ चले नइ उधार भाई।  


                                                                                                    बिना लड़े जीत कइसे होही समर म आके अभी दिखावव। 

                                                                                                    उही मजा ला चखे हमेसा भले मरे जीत हार भाई।


                                                                                                    बड़ा बड़ौना बताये सब ला बड़ा मजा ले पनीर खाये। 

                                                                                                    कहाँ दबाये ले ओ दबत हे सबो बतावय डकार भाई।


                                                                                                    बड़ा अमीरी के रौब झाड़े खवाय तँय सब ला लेग होटल।

                                                                                                    उधार बाँकी अभी तलक हे करे न वापस हमार भाई।


                                                                                                    सबो सवाँगा भले करे तँय दिलीप बिंदी बिना अधूरा

                                                                                                    कहाँ सुहाथे कढ़ी तको हर बता डले बिन लगार भाई 


                                                                                                    रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 

                                                                                                    बलौदाबाजार छत्तीसगढ़

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    *बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला*

                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122

                                                                                                    नयन मुँदे हस गरब वसन मा, डहर मा सत के झपात हस रे।
                                                                                                    उगे कहाँ हे अभी पाँख हा, अगास उड़े बर नपात हस रे।।1

                                                                                                    ठिहा ठिकाना बने बनाना, मया दया धर उमर पहाना।
                                                                                                    कभू इती जा कभू उती जा, घिलर  घिलर तन खपात हस रे।

                                                                                                    करम रही ना धरम रही ना, उहाँ सही मा शरम रही ना।
                                                                                                    टिना हरस अउ कनक हरौं कहि, अपन बदन तैं तपात हस रे।3

                                                                                                    मनुष जनम धर मरत हरत हस, दिखत कहाँ हस बने तने तैं।
                                                                                                    लगत हवस जस कँदाय कपड़ा, जघा जघा ले कपात हस रे।4

                                                                                                    हरौं कथस तैं गुनी गियानी, तभो रहय नइ बने सियानी।
                                                                                                    खुदे पहाड़ा गलत पढ़त हस, दुसर घलो ला जपात हस रे।

                                                                                                    जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
                                                                                                    बाल्को, कोरबा(छग)

                                                                                                    गजल- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"


                                                                                                    गजल- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"


                                                                                                    बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला

                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122


                                                                                                    इँहे सरग अउ नरक इँहे हे, अपन बने तैं करम करे जा।

                                                                                                    हँसी खुशी से बिता ले जिनगी, दया धरे मन धरम करे जा।।


                                                                                                    मजा उड़ा ले जिया जुड़ा ले, लहुट दुबारा समय न आये।

                                                                                                    हवय इहाँ मतलबी जमाना, मिले मरम,झन भरम करे जा।।


                                                                                                    उठा कदम अउ बढ़े चले जा, कहाँ मिले हे बिना लड़े कुछ।

                                                                                                    मिलय कभू झन डगर निराशा, लहू जिगर ला गरम करे जा।।


                                                                                                    बड़ा सुहाथे नजर सबो के, कदर करे जे मया के बोली।

                                                                                                    गड़े कभू फाँस बन इही हा, कड़क जुबानी लरम करे जा।।


                                                                                                    पड़य कभू झन नजर छुपाना, कहत हवे गोठ नेक पात्रे।

                                                                                                    कभू न जीना करे गुलामी, करे कभू ता शरम करे जा।।


                                                                                                    गजलकार- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

                                                                                                    बिलासपुर ( छत्तीसगढ़ )

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    *बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला*

                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122

                                                                                                    अपन अपन ले सबे बकत हे, महूँ हा मोरे सिलाय हावै।
                                                                                                    अबक तबक बस परान उड़ाही, जहर जमाना पिलाय हावै।

                                                                                                    बिछे हवै काँटा खूँटी पथ मा, गिरत उठत बस चलत बढ़त हौं।
                                                                                                    परे हे फोरा दिखे ददोरा, लहू बहत पग छिलाय हावै।2

                                                                                                    करौं बिगारी खा खा के गारी, ना मैं भिखारी ना हे चिन्हारी।
                                                                                                    भला अपन मनके मैं चलौं का, चलाय जउने खिलाय हावै।3

                                                                                                    दुसर बिना कब उदर हा भरही, करम के लेखा कइसे सुधरही।
                                                                                                    निगल सकौं ना उगल सकौं मैं, पता नही का लिलाय हावै।4

                                                                                                    हरौं कमैया तभो ले भैया, उबुक चुबुक करथे मोर नैया।
                                                                                                    पटक पटक मारे धन खजाना, गजब रे गोल्लर ढिलाय हावै।5

                                                                                                    जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
                                                                                                    बाल्को,कोरबा(छग)

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल-चोवा राम 'बादल'

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी गजल-चोवा राम 'बादल'


                                                                                                    *बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला*


                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन


                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122


                                                                                                    भरे हे शक्कर उहाँ हे चाँटा तभे तो नाता बने बने हे

                                                                                                    खिसा मा पइसा धरे हवै वो तभे तो मितवा बने बने हे


                                                                                                    मिले हे कुर्सी अबड़ जतन मा तहूँ हा काबर पिछू परे हच

                                                                                                    करे हे कहिथें वो थूँक पालिश बता तो लड़ुवा बने बने हे


                                                                                                    खुदे बिमारी मा जे मरत हे टमड़ के नाड़ी इलाज करथे

                                                                                                    धरे कुदारी गुनी वो बइगा जरी खनइया बने बने हे


                                                                                                    उपर छवा हे मया के बोली जगा जगा जाल फेंके हावय

                                                                                                    निचट हवै चालबाज लबरा कसम खवइया बने बने हे


                                                                                                    चढ़ा के बाँही जे ताल ठोंकय गरम जनावय जुबान जेकर

                                                                                                    भजन करत हे रमायनी कस भगत वो बगुला बने बने हे


                                                                                                    नचा नचा के थकोथे भारी कहाँ वो देथे कभू थिरावन

                                                                                                    हवै ग सिरतोन मन हा बैरी तभो ले हितवा बने बने हे


                                                                                                    अबक तबक जीव छूट जाही का तैं बरसबे तभे रे 'बादल'

                                                                                                    किसान हे टकटकी लगाये बरस जा मौका बने बने हे


                                                                                                    चोवा राम 'बादल'

                                                                                                    हथबन्द, छत्तीसगढ़

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल- मनीराम साहू‌ 'मितान'

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी गजल- मनीराम साहू‌ 'मितान'


                                                                                                    बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला


                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन


                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122


                                                                                                    दिखा के टूॅहू हरयॅ ठगइया, गली गली मा घुमत हवयॅ गा।

                                                                                                    गरीब मन के हरयॅ लुटइया, गली गली मा घुमत हवयॅ गा।


                                                                                                    कहॉ ठिकाना हवय बुता के, टकर परे हे नशा‌ करे के,

                                                                                                    मॅगाय दारू अबड़ पियइया, गली गली मा घुमत हवयॅ गा।


                                                                                                    भले कहत हें नफा अपन‌ बर,लहू सबन के हवय जी लाली।

                                                                                                    मड़ाय ठेनी मनुज लड़इया, गली गली मा घुमत हवयॅ गा।


                                                                                                    चलत हवय योजना ह कागज, भले मचे हे बजार हल्ला,

                                                                                                    बिना‌ कदर के हवयॅ जी गइया, गली गली मा घुमत हवयॅ गा।


                                                                                                    कहाॅ ठिकाना हवय पढ़े के, कथे पढ़ावव लगाव पोंगा,

                                                                                                    ढिलाय छेल्ला सबो पढ़इया, गली गली मा घुमत हवयॅ गा।


                                                                                                    बढ़े हवय जी नॅगत करोना, छिनाय हाबय गा काम धंधा,

                                                                                                    मरत भुखन हें बुता करइया, गली गली मा घुमत हवयॅ गा।


                                                                                                    भुले हवय सब अपन अपन‌ मा, कहाॅ रथे जी फिकर दुसर के,

                                                                                                    मनी हृदय के दरद बढ़इया, गली गली मा घुमत हवयॅ गा।


                                                                                                    मनीराम साहू 'मितान'

                                                                                                    ग़ज़ल ---आशा देशमुख

                                                                                                     ग़ज़ल ---आशा देशमुख


                                                                                                    *बहरे रजज मखबून मरफू मुखल्ला*


                                                                                                    मुफाइलुन  फाइलुन फ़उलुन मुफाइलुन  फ़ाइलुन  फ़उलुन


                                                                                                    1212  212 122  1212 212 122


                                                                                                    लगत हवय बड़ जी असकटासी,समय घलो हा पहाड़ लागे।

                                                                                                    गली डहर हा दिखत हे सुन्ना,सबो डहर अब उजाड़ लागे।


                                                                                                    धरे हे डिग्री पढ़े हे कॉलेज, भरत हवय रोज रोज फारम

                                                                                                    पता नही का तोला रे बइहा,ये नौकरी बर जुगाड़ लागे।


                                                                                                    नदी समुंदर बदे मितानी,का झोपड़ा का महल बसेरा

                                                                                                    कहाँ मढ़ावँव में पाँव संगी,तुँहर तो खिड़की किवाड़ लागे।


                                                                                                    बने हे दूल्हा परी बिहाये,उठात हावय वो नाज नखरा

                                                                                                    सियान मन के रखे जिनिस हा, ये सुंदरी ला कबाड़ लागे।


                                                                                                    मया के फांदा लरी जरी हे, कहूँ ला फांसे कहूँ उबारे

                                                                                                    भगत रतन ये बने जगत मा,अबड़ बड़े सुख लताड़ लागे।


                                                                                                    आशा देशमुख

                                                                                                    एनटीपीसी जमनीपाली कोरबा

                                                                                                    गजल- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

                                                                                                     गजल- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"


                                                                                                    बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला

                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122


                                                                                                    खड़े कहाँ देश आज देखव, फकीर हाथो गुलाम होगे।

                                                                                                    विकास के बात भूल जा तैं, गरीब के वोट आम होगे।।


                                                                                                    नदी कुँआ सब परे हे सुक्खा, नहर दिखत हे तको पियासा।

                                                                                                    कटत हवय रोज पेड़ छइँहा, डगर डगर दुःख घाम होगे।।


                                                                                                    करय गुलामी धरम धरे जन, सही गलत  के दिशा भुलाये।

                                                                                                    करत हवव झूठ वाहवाही, इही मनुज तोर दाम होगे।।


                                                                                                    कलम उठा लिख नवा इबादत, दिशा दशा देश मान खातिर।

                                                                                                    पता नही कब उगे बिहनिया, करत अगोरा ये शाम होगे।।


                                                                                                    कहत हवय हाथ जोड़ पात्रे, अपन समझ जा वजूद भाई।

                                                                                                    बढ़े हवय जेन धर बुलंदी, उँखर इँहा आज नाम होगे।।


                                                                                                    गजलकार- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

                                                                                                    बिलासपुर ( छत्तीसगढ़ )

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"


                                                                                                    *बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला*


                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन


                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122


                                                                                                    धरे दू आना गजब फुदर झन, गरब बड़े हे बड़े बड़े के।

                                                                                                    हमर असन के कब आही पारी, बुता पड़े हे बड़े बड़े के।


                                                                                                    का काम आही का जग मा छाही, हमर करम अउ हमर उदिम हा।

                                                                                                    हमर ठिहा के हे का पुछारी, महल अड़े हे बड़े बड़े के।


                                                                                                    हरे सबे शान शौकत ओखर, मलत रबे हाथ खा खा ठोकर।

                                                                                                    का खेल ला तैंहा जीत पाबे, नियत गड़े हे बड़े बड़े के।।


                                                                                                    कते सही हे कते गलत हे, अभो लडाई गजब चलत हे।

                                                                                                    अपन करम ला करत बढ़े जा, गतर सड़े हे बड़े बड़े के।


                                                                                                    सगा घलो दे दगा भगागिस, अपन अपन रट के मन ठगागिस।

                                                                                                    शहर डहर सँग गली गली मा, बबा खड़े हे बड़े बड़े के।


                                                                                                    जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    बाल्को, कोरबा(छग)

                                                                                                    गजल- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

                                                                                                     गजल- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"


                                                                                                    बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला

                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122


                                                                                                    धरे धरोहर हवय नँदावत, हमर सबो बर सवाल होगे।।

                                                                                                    रहय घरो घर मया मितानी, दिखे नही अब दुकाल होगे।।


                                                                                                    अपन सुवारथ धरे सबो हे, फिकर कहाँ   दीन पर भलाई।

                                                                                                    मगन परे लोभ धन नशा मा, दरद भरे देख हाल होगे।।


                                                                                                    नवा बछर के उमंग भारी, करय सुवागत सजा दुवारी।

                                                                                                    बड़े बड़े के महल सजे हे, गरीब घर सुख मलाल होगे।।


                                                                                                    गजब चलत हे धरम के धंधा, बिछे हवय बड़ कुचक्र भारी।

                                                                                                    बने हवय अंध भक्त मनखे, धरम मठाधीस चाल होगे।।


                                                                                                    बचा सकस ता बचा अभी ले, बचे खुचे स्वाभिमान पात्रे।

                                                                                                    बने सिपाही कलम बढ़े जा, सबो तरफ लूट जाल होगे।।


                                                                                                    गजलकार- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

                                                                                                    बिलासपुर ( छत्तीसगढ़ )

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी गजल-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    *बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला*

                                                                                                    मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन

                                                                                                    1212 212 122 1212 212 122

                                                                                                    बने बतैया मिले घलो नइ, गलत बतैया भरे पड़े हे।

                                                                                                    दुसर के करनी ला कोन भाथे,अपन जतैया भरे पड़े हे।


                                                                                                    कहाँ गिरे ला बचाय खातिर,करे उदिम कौने गा मुसाफिर।

                                                                                                    जतन करैया कहाँ हे कोनो, सतत सतैया भरे पड़े हे।।


                                                                                                    गधा पहिर चलथे शेर खँड़ड़ी, दिखय घलो कौवा आज पढ़ड़ी।

                                                                                                    कते बनैया हे मंदरस के, इहाँ दतैया भरे पड़े हे।


                                                                                                    फिकर प्रकृति के करे ना मनखे, करत हवै सब उजाड़ मनके।

                                                                                                    भले हरे जिंदगी पवन जल, तभो मतैया भरे पड़े हे।।


                                                                                                    रटत हे नेता कि दुख भगाही, अबक तबक बस बिहान आही।

                                                                                                    विपत हरैया कहाँ हे कोई, दरद दतैया भरे पड़े हे।


                                                                                                    जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    1. बाल्को, कोरबा(छग)

                                                                                                    Thursday 6 August 2020

                                                                                                    मुकम्ल गजल -मनीराम साहू मितान

                                                                                                     मुकम्ल गजल -मनीराम साहू मितान


                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम

                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन

                                                                                                        

                                                                                                    212  212  212 212


                                                                                                    रूप‌ कइसन‌ अपन‌ वो‌ बनाये हवय।

                                                                                                    मूड़ आधा के चूॕदी चनाये हवय।


                                                                                                    हे झुलत कान लुरकी उहू एक मा,

                                                                                                    घेंच माला घलो ओरमाये हवय।


                                                                                                    लाम दाढ़ी रखे संत ज्ञानी असन,

                                                                                                    मेंहदी ला उहू मा रचाये हवय।


                                                                                                    जींस पहिरे हवय जी कपाये असन,

                                                                                                    देख पाछू कुती बोचकाये हवय।


                                                                                                    हाथ हाबय मुबाइल अबड़ दाम के,

                                                                                                    कान‌ फुंदरा असन कुछ लगाये हवय।


                                                                                                    चेत पुस्तक पढ़े मा रथे जी कहाॅ,

                                                                                                    ज्ञान फिल्मी मगज मा समाये हवय।


                                                                                                    लेत रइथे सदा फटफटी के मजा,

                                                                                                    अंक गाड़ी जघा लव लिखाये हवय।


                                                                                                    थोरको कुछ कहय जी मनी हर कहूॅ,

                                                                                                    बिख उछरथे मुॅहू जे भराये हवय।


                                                                                                    मनीराम साहू मितान

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल -जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                     छत्तीसगढ़ी गजल -जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"


                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम 

                                                                                                    फ़ाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन 


                                                                                                    212 212 212 212  


                                                                                                    देख डरपोकना अउ डरत आज हे।

                                                                                                    बैला हरहा हदर के चरत आज हे।1


                                                                                                    पर भरोसा करे काय दाई ददा।

                                                                                                    मूँग छाती मा बेटा दरत आज हे।2


                                                                                                    खाय बर बड़ जुरे सब खुशी के समय।

                                                                                                    दुःख ला देख मनखे टरत आज हे।3


                                                                                                    जौन मनके गतर हा खताये हवै।

                                                                                                    ओखरे काठा कोठी भरत आज हे।4


                                                                                                    बैठ के होली मा होलिका हा हँसै।

                                                                                                    भक्त प्रहलाद बम्बर बरत आज हे।5


                                                                                                    काम बूता मा कोनो बढ़े तब बता।

                                                                                                    देखइय्या के छाती जरत आज हे।6


                                                                                                    घाम मा धान एती भुँजावत हवै।

                                                                                                    बाढ़ मा धान वोती सरत आज हे।7


                                                                                                    छोकरा धन ठिहा छोड़ बन मा बसै।

                                                                                                    डोकरा धन रतन ला धरत आज हे।8


                                                                                                    झूठ इरखा असत के उमर हा बढ़ै।

                                                                                                    मीत ममता मया सत मरत आज हे।9


                                                                                                    जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    बाल्को, कोरबा(छग)

                                                                                                    ग़ज़ल--आशा देशमुख

                                                                                                     ग़ज़ल--आशा देशमुख


                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम

                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन


                                                                                                    212   212    212   212


                                                                                                    रात बीते अगोरत पहर आखरी

                                                                                                    मन मया मा हिलोरे लहर आखिरी।


                                                                                                    आज पानी हवय प्रान बाँचे हवय

                                                                                                    जीव खोजत फिरत हे नहर आखरी।


                                                                                                    का कछेरी अदालत में जावत हवच

                                                                                                    एक हावय मया के डहर आखरी


                                                                                                     जेन दिन वायरस के जी मिलही दवा

                                                                                                    हे उही दिन करोना कहर आखरी।


                                                                                                    मान पानी बिना कुछ नही हे सगा

                                                                                                    झन गरू बन निकल अब ठहर आखरी।


                                                                                                    भूख करजा गरीबी सताए जबड़

                                                                                                    बाँचगे जिंदगानी जहर आखरी।


                                                                                                    घूम के देश दुनिया तभो नइ थके

                                                                                                    अब थिराले इही हे शहर आखरी।


                                                                                                    आशा देशमुख

                                                                                                    एनटीपीसी जमनीपाली कोरबा

                                                                                                    गज़ल - अजय अमृतांशु

                                                                                                     गज़ल - अजय अमृतांशु


                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम

                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन

                                                                                                    212   212   212   212


                                                                                                    मोह माया फँसे राम गाही कहाँ।

                                                                                                    खाली पइसा धरय श्याम पाही कहाँ।


                                                                                                    आज हावय जमाना बफे के सुनव।

                                                                                                    लोग पंगत लगा भोज खाही कहाँ। 


                                                                                                    जे सुनै ना कभू राम सीता कथा।

                                                                                                    बात शबरी के वो मन बताही कहाँ।


                                                                                                    देख फैशन नवा कहि के पहिरे हवय।

                                                                                                    तन ढँकावय नहीं तब लजाही कहाँ।


                                                                                                    रोल कृष्णा के वोला निभाना हवय।

                                                                                                    हाथ मा बाँसुरी नइ सुनाही कहाँ।


                                                                                                    बस दिखावा हवय चारो कोती सुनौ।

                                                                                                    मन म श्रद्धा नहीं राम आही कहाँ।


                                                                                                    गर में माला हवय गेरुवा तन मा हे।

                                                                                                    मन में रावण भरे राम गाही कहाँ।


                                                                                                    अजय अमृतांशु

                                                                                                    भाटापारा (छत्तीसगढ़)

                                                                                                    गजल -मनीराम साहू मितान

                                                                                                     गजल -मनीराम साहू मितान


                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम

                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन

                                                                                                        

                                                                                                    212  212  212 212


                                                                                                    झार मिलके मया गीत गाबो चलव।

                                                                                                    पेंड़ सुम्मत के सुग्घर लगाबो चलव।


                                                                                                    भागही देख बइरी हमर फेट ला,

                                                                                                    मिल‌ मुठा कस सबो झन बॅधाबो चलव।


                                                                                                    काम साॅपर करे के मजा हे अलग,

                                                                                                    हाॅसबो गोठियाबो कमाबो चलव।


                                                                                                    हे बहत फोकटे जल गिरे हे नॅगत,

                                                                                                    छेंक ओकर नफा सब उठाबो चलव।


                                                                                                    बड़ पनपथे बिमारी जी चउमास मा,

                                                                                                    कर उदिम रोग दुरिहा भगाबो चलव।


                                                                                                    आय सावन‌ हवय माह पावन हवय,

                                                                                                    हम उमानाथ शिव ला मनाबो चलव।


                                                                                                    हे बिकत देख ले अब तो गोबर घलो,

                                                                                                    मिल सबो आज गउधन बॅचाबो चलव।


                                                                                                    बात लव मान जी सच मनी हे कहत,

                                                                                                    छोड़ के बैर मिलबो मिलाबो चलव।


                                                                                                    मनीराम साहू मितान

                                                                                                    गज़ल - अजय अमृतांशु

                                                                                                     गज़ल - अजय अमृतांशु


                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम

                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन

                                                                                                    212   212   212   212


                                                                                                    मिलके सब झन ल सिरतो कमाना हवय।

                                                                                                    शांति सुख देश मा फिर से लाना हवय।


                                                                                                    भ्रूण हइता मा बेटी मरत हे अबड़।

                                                                                                    होवै अन्याय झन अब बचाना हवय।


                                                                                                    देश मा आये हे भारी विपदा सुनव।

                                                                                                    बाँट के अन्न पानी ला खाना हवय।


                                                                                                    छोड़ के सब अपन जाति पद अउ धरम।

                                                                                                    देश भारत ल मिल के सजाना हवय।


                                                                                                    चीर देबों कहूँ आँखी देखाबे तैं।

                                                                                                    नइ हे कमजोर भारत बताना हवय।


                                                                                                    दुःख अउ सुख लगे रहिथे जिनगी म सुन।

                                                                                                    विपदा भारी तभो मुस्कुराना हवय।


                                                                                                    लाभ घाटा लगे रहिथे बैपार मा।

                                                                                                    भाग मा हे लिखे खोना पाना हवय।


                                                                                                    अजय अमृतांशु

                                                                                                    भाटापारा (छत्तीसगढ़)

                                                                                                    गजल--चोवा राम 'बादल'

                                                                                                     गजल--चोवा राम 'बादल'


                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम

                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन

                                                                                                    212   212   212   212


                                                                                                    तोर सुरता म निच्चट भुलाये रथवँ

                                                                                                    मोह माया म छिन छिन छँदाये रथवँ


                                                                                                    झन कभू पाँव में तोर काँटा गड़ै

                                                                                                    संसो के रोज दियना जलाये रथवँ


                                                                                                    फूल पाती चढ़ा अउ नवाँ माथ ला

                                                                                                    देवधामी तको मैं मनाये रथवँ


                                                                                                    घाम जाने नहीं  छाँव पाये सदा

                                                                                                    वो मया कुँदरा अभ्भो बनाये रथवँ


                                                                                                    आँखी के पुतरी तैंहा मयारुक अबड़

                                                                                                    आँखी आँखी म तोला झुलाये रथवँ


                                                                                                     होबे कइसे के अनजान हाबय जगा

                                                                                                    सोर बर सूर उहँचे लमाये रथवँ


                                                                                                    तैं सुखी राह *बेटी* वो ससुराल में

                                                                                                    मन उही भाव कोती लगाये रथवँ


                                                                                                    चोवा राम 'बादल'

                                                                                                    हथबन्द, छत्तीसगढ़

                                                                                                    गज़ल - अजय अमृतांशु

                                                                                                     गज़ल - अजय अमृतांशु


                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम

                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन

                                                                                                    212   212   212   212


                                                                                                    काम सिरतो भलाई के करना हवय,

                                                                                                    बैठ के गद्दी मा देश चरना हवय।


                                                                                                    चुन के भेजे हवय वोला जनता सबो,

                                                                                                    अब बछर पाँच जनता के मरना हवय।


                                                                                                    खाली अपने अपन माल झड़कय जबर,

                                                                                                    दुःखी जनता मरय जेब भरना हवय।


                                                                                                    कोनो रद्दा बतावय बिपत मा नहीं, 

                                                                                                    दीया अँधियार मा बनके बरना हवय।


                                                                                                    प्यासे हे कतका बेरा ले देखव सबो,

                                                                                                    मीठ पानी सही तोला झरना हवय।


                                                                                                    बिरथा जिनगी हवय साधु संगत बिना,

                                                                                                    संत बानी बचन सब ला धरना हवय।


                                                                                                    मौत आथे सबों के सुनौ एक दिन,

                                                                                                    फालतू के "अजय" फेर डरना हवय।


                                                                                                    अजय अमृतांशु

                                                                                                    भाटापारा

                                                                                                    गजल- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

                                                                                                     गजल- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"


                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम 

                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन 

                                                                                                    212  212  212  212 


                                                                                                    साथ छूटय कभू झन इही आस हे।

                                                                                                    मोर अंतस बसे तोर विश्वास हे।।


                                                                                                    मान कहना सियानी भलाई तभे।

                                                                                                    झूठ के राह जिनगी करे नाश हे।।


                                                                                                    सोंच पाये नही का सही का गलत।

                                                                                                    बुद्धि रहिके मनुज अब बने दास हे।।


                                                                                                    छोड़ देना नशा नाश के द्वार ला।

                                                                                                    करथे बरबाद घर ला जुआ ताश हे।।


                                                                                                    जान ले गाँव परिवार के मोल ला।

                                                                                                    प्रेम डोरी बँधे सब मया खास हे।।


                                                                                                    थाम सच ला चलौ संत कहना इही।

                                                                                                    ज्ञान गुरु के धरे मन मिटे प्यास हे।।


                                                                                                    सुन गजानंद जी हे जमाना बुरा।

                                                                                                    नोंच खाथे सुवारथ मा तन लाश हे।।



                                                                                                    गजलकार- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

                                                                                                    बिलासपुर ( छत्तीसगढ़ )

                                                                                                    Monday 3 August 2020

                                                                                                    गज़ल - अजय अमृतांशु

                                                                                                    गज़ल - अजय अमृतांशु

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
                                                                                                    212   212   212   212

                                                                                                    सच के महिमा घटाये ले घटही कहाँ।
                                                                                                    झूठ पाटे ले मनखे के पटही कहाँ। 

                                                                                                    दूध चलनी म दूहय करम दोष दै।
                                                                                                    बिन मिटाये अँधेरा ह मिटही कहाँ।

                                                                                                    नाम सिरतो कमाये बने तै बड़े।
                                                                                                    हे लबारी के चद्दर त खँटही कहाँ।

                                                                                                    दुनिया भर मा हवै पापी छलिया अबड़।
                                                                                                    आही जमराज ता फेर नटही कहाँ।


                                                                                                    जे कमाये हवै बाप माँ के मया। 
                                                                                                    ये बँटाये ले सिरतो म बँटही कहाँ।


                                                                                                    रक्षा खातिर खड़े देश के सेना हा।
                                                                                                    जान जाही भले फेर हटही कहाँ।


                                                                                                    काम धंधा करय ना घुमय रात दिन।
                                                                                                    तब गरीबी के बादर ह छँटही कहाँ।

                                                                                                    अजय अमृतांशु
                                                                                                    भाटापारा

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल -जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल -जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम 
                                                                                                    फ़ाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन 

                                                                                                    212 212 212 212  

                                                                                                    तोर अउ मोर मा हे घिरे आदमी।
                                                                                                    नित लड़त हे कसोरा भिरे आदमी।1

                                                                                                    थल ल दाबत हवे जल ल सोंखत हवे।
                                                                                                    अउ अगासे ल जिद मा तिरे आदमी।2

                                                                                                    भूख सुख बर भुलाके धरम अउ करम।
                                                                                                    भेड़िया बनके भटकत फिरे आदमी।3

                                                                                                    एक छिन मा बढ़े एक छिन मा अड़े।
                                                                                                    एक छिन स्वार्थी बनके गिरे आदमी।4

                                                                                                    बोल मा भर जहर धर गलत सँग डहर।
                                                                                                    मीत ममता मया ला चिरे आदमी।5

                                                                                                    जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"
                                                                                                    बाल्को, कोरबा(छग)

                                                                                                    गजल -दुर्गा शंकर इजारदार

                                                                                                    गजल -दुर्गा शंकर इजारदार

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
                                                                                                    212 212 212 212


                                                                                                    बाप दाई ला झन तँय भुलाबे कभू ,
                                                                                                    दुःख देके गा झन तँय रुलाबे कभू।।

                                                                                                    पोंसवा तो कुकुर गुन ला गावय नहीं,
                                                                                                    संग खुद के गा झन तँय सुलाबे कभू ।।

                                                                                                    तँय बिताले हँसी मा सरी जिंदगी,
                                                                                                    मुँह ला तो गा झन तँय फुलाबे कभू।।

                                                                                                    मान करथे समय के वो होथे सफल,
                                                                                                    सुन समय ला गा झन तँय झुलाबे कभू।।

                                                                                                    काज दुर्गा समाजीक कर्जा धरे ,
                                                                                                    भात खाये ब झन तँय बुलाबे कभू।।

                                                                                                    दुर्गा शंकर ईजारदार
                                                                                                    सारंगढ़(छत्तीसगढ़)

                                                                                                    ग़ज़ल-ज्ञानु

                                                                                                    ग़ज़ल-ज्ञानु

                                                                                                    बहरे मुतकारिक मुसम्मन सालिम
                                                                                                    फाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन
                                                                                                    212 212 212 212

                                                                                                    तोर भारी इहाँ बोलबाला हवय
                                                                                                    देख मुँह मा लगे सबके ताला हवय

                                                                                                    का बतावँन अपन हाल ला आज हम
                                                                                                    जिंदगानी हमर झींगालाला हवय

                                                                                                    मुफ्त बिजली मिलत हे इहाँ नाम के
                                                                                                    गाँव ले कोसो दुरिहाँ उजाला हवय

                                                                                                    लोभ लालच लबारी ल जानन नही
                                                                                                    साफ हे मन भले देह काला हवय

                                                                                                    भूखे लाँघन रहन माँग खावन नही
                                                                                                    भाग्य जाँगर भरोसा निवाला हवय

                                                                                                    कइसे कहि नक्सलीमन ला भाई अपन
                                                                                                    हाथ बंदूक अउ बरछी भाला हवय

                                                                                                    कोन ला दुख हमर आज दिखथे इहाँ
                                                                                                    'ज्ञानु' आँखी मा सबके तो जाला हवय

                                                                                                    ज्ञानु

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गज़ल- मोहन वर्मा

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गज़ल- मोहन वर्मा

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
                                                                                                    212  212  212  212

                                                                                                    मीठ बोली घलो अब सुहावय नहीं ।
                                                                                                    जागथँव रात भर नींद आवय नहीं।

                                                                                                    घाम- जाड़ा बरोबर हवे मोर बर,
                                                                                                    तोर सुध मा रे संगी जनावय नहीं ।

                                                                                                    ये जमाना बने मोर बइरी हवे, 
                                                                                                    कर बहाना कभू मन रिझावय नहीं ।

                                                                                                    झन परोसी मरय गा कभू भूख मा,
                                                                                                    सोच के पोठ कौंरा खवावय नहीं ।

                                                                                                    बात सिरतोन हावय सगा मान ले,
                                                                                                    जाँच ले हाथ छइँहा धरावय नहीं ।

                                                                                                    मोठ हे तोर खीसा ह काबर बता, 
                                                                                                    पाप के धन लुकाये लुकावय नहीं ।

                                                                                                    भेंट होही कभू जब डहर- बाट मा,
                                                                                                    राज के बात "मोहन" बतावय नहीं ।

                                                                                                    --- मोहन लाल वर्मा
                                                                                                    ग्राम अल्दा, तिल्दा, रायपुर (छत्तीसगढ़)

                                                                                                    गजल- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"


                                                                                                    गजल- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम 
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन 
                                                                                                    212 212 212 212 

                                                                                                    घासी बाबा कहे प्रेम गुरु धाम हे।
                                                                                                    झूठ बदनाम हे सच हा सतनाम हे।।

                                                                                                    तैं बड़े आदमी मोर दुख दिन कटे।
                                                                                                    चल बता दे तहीं जिनगी का दाम हे।।

                                                                                                    लोभ काया धरे मोह माया फँसे।
                                                                                                    फोकटे तोर दौलत ये तन चाम हे।।

                                                                                                    कोंन करही भलाई सत काम ला।
                                                                                                    झूठ के राह मा एशो आराम हे।।

                                                                                                    हे गजानंद अब सोंच मा तो परे।
                                                                                                    सत करम छाँव मा आज दुख घाम हे।।

                                                                                                    गजलकार- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"
                                                                                                    बिलासपुर ( छत्तीसगढ़ )

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल -जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल -जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम 
                                                                                                    फ़ाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन 

                                                                                                    212 212 212 212  

                                                                                                    बात नइ माने जे लात खाये बिना।
                                                                                                    छोड़बे कइसे वोला ठठाये बिना।1

                                                                                                    हाथ देबे ता धरथे गला ला सबे।
                                                                                                    पाल लइका घलो सिर चढ़ाये बिना।2

                                                                                                    बन बुरा बर बुरा अउ बने बर बने।
                                                                                                    काम कर ले सदा मटमटाये बिना।3

                                                                                                    खात कौरा नँगाही कुटाही जबर।
                                                                                                    पेट भरगे कहन नइ अघाये बिना।4

                                                                                                    छाय हावय सबे तीर लत लोभ मद।
                                                                                                    साफ करबोन सबला सनाये बिना।5

                                                                                                    पाँख रहिके पँखेड़ू  धरा खोजथे।
                                                                                                    देख मानुष जिये नइ उड़ाये बिना।6

                                                                                                    बात करथे हवा संग गाड़ी धरे।
                                                                                                    चेत चढ़थे कहाँ ले झपाये बिना।7

                                                                                                    टोर जांगर घलो एक लाँघन पड़े।
                                                                                                    एक खाये पछीना गिराये बिना।8

                                                                                                    दूध माड़े रथे ता दही बन जथे।
                                                                                                    लेवना का निकलथे मथाये बिना।9

                                                                                                    साज अउ बाज बिरथा बिना साधना।
                                                                                                    धार हँसिया रहे नइ पजाये बिना।10

                                                                                                    सामने आय नइ सच सहज मा कभू।
                                                                                                    पेड़ ले फल गिरे नइ हलाये बिना।11

                                                                                                    काम ला देख के जे नयन मूंद दै।
                                                                                                    खाय बर जाग जाथे जगाये बिना।12

                                                                                                    बिन मया आदमी आदमी काय ए।
                                                                                                    घर कहाये नही छत छवाये बिना।13

                                                                                                    जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
                                                                                                    बाल्को, कोरबा

                                                                                                    गजल- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"


                                                                                                    गजल- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम 
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन 
                                                                                                    212 212 212 212 

                                                                                                    ला बिसा के मया प्रेम के हाट ले।
                                                                                                    बाँट नफरत नही लोभ के घाट ले।।

                                                                                                    ज्ञान के बात बोलै सदा लेखनी।
                                                                                                    न्याय स्याही भरे सत्य के बाट ले।।

                                                                                                    चार दिन के जवानी पहा सुख धरे।
                                                                                                    फिर बुढ़ापा पहाये हे दुख खाट ले।।

                                                                                                    प्रेम बिरवा लगा छाँव सुख जन मिले।
                                                                                                    काँटा कुमता गड़े पाँव ना काट ले।।

                                                                                                    एक मनखे सबो एक हे तो लहू।
                                                                                                    भेद खाई बढ़े रात दिन पाट ले।।

                                                                                                    गजलकार- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"
                                                                                                    बिलासपुर ( छत्तीसगढ़ )

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गज़ल -मोहन वर्मा

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गज़ल -मोहन वर्मा

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
                                                                                                    212  212  212  212

                                                                                                    आदमी ला गरब अउ भरम होगे हे ।
                                                                                                    बेंच मरजाद ला बेसरम होगे हे।

                                                                                                    जा पता नइ करे तँय सदर भीतरी, 
                                                                                                    सोन-चाँदी के कीमत नरम होगे हे।

                                                                                                    जानकारी कहाँ ले जुटाये हवस, 
                                                                                                    रोज पइसा कमाना धरम होगे हे ।

                                                                                                    नौकरी लग जही गा कहत हे ददा,
                                                                                                    जेब साहेबमन के गरम होगे हे ।

                                                                                                    माँग- प्रस्ताव मा का लिखे हस बता,
                                                                                                    मामला फिट करे के करम होगे हे ।

                                                                                                    भागमानी कहाथस अपन आप ला,
                                                                                                    भेद जाने नहीं सब मरम होगे हे ।

                                                                                                    देख " मोहन "खवाके गटारन घलो, 
                                                                                                    पेट पीरा ह बाढ़े- चरम होगे हे ।

                                                                                                    --- मोहन लाल वर्मा
                                                                                                    ग्राम अल्दा, तिल्दा, रायपुर (छत्तीसगढ़)

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल -जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल -जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम 
                                                                                                    फ़ाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन 

                                                                                                    212 212 212 212  

                                                                                                    मोह मद मा फँसे आदमी मन इहाँ।
                                                                                                    फोकटे के हँसे आदमी मन इहाँ।।1

                                                                                                    साँप कस धर जहर घूमथे सब डहर।
                                                                                                    शांति सुख ला डँसे आदमी मन इहाँ।2

                                                                                                    ढोर बन मिल जथे चोर बन मिल जथे।
                                                                                                    माथ चंदन घँसे आदमी मन इहाँ।।3

                                                                                                    तोर अउ मोर मा धन रतन जोर मा।
                                                                                                    डोर धर गल कँसे आदमी मन इहाँ।4

                                                                                                    छोड़ के गाँव ला अउ मया छाँव ला।
                                                                                                    हे शहर मा धँसे आदमी मन इहाँ।5

                                                                                                    जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
                                                                                                    बाल्को, कोरबा(छग)

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल -जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल -जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम 
                                                                                                    फ़ाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन 

                                                                                                    212 212 212 212  

                                                                                                    दुःख अउ सुख मा जिनगी पहाही इहाँ।
                                                                                                    कोई जाही ता कोई हा आही इहाँ।1

                                                                                                    धन मया के उपर आज भारी हवै।
                                                                                                    धन सकेलत सबे सिर मुड़ाही इहाँ।2

                                                                                                    कोई हिटलर हवै कोई औरंगजेब।
                                                                                                    फेर इतिहास हा दोहराही इहाँ।3

                                                                                                    राज हे लाज ला बेच देहे तिंखर।
                                                                                                    जौन लड़ही झगड़ही ते खाही इहाँ।4

                                                                                                    जेन पर के भरोसा भरे पेट ला।
                                                                                                    वो मनुष काय नामा जगाही इहाँ।5

                                                                                                    काटही बेर गिनगिन मनुष मोठ मन।
                                                                                                    हाड़ा कस मनखे मन नित कमाही इहाँ।6

                                                                                                    घाम करथे जबर बरसा बरसे अबड़।
                                                                                                    आ जही का भयंकर तबाही इहाँ।7

                                                                                                    चोर के धन चुरा चोर हा लेजही।
                                                                                                    राज ला बाँट खाही सिपाही इहाँ।8

                                                                                                    खा पी सुरसा घलो तो कलेचुप हवै।
                                                                                                    का मनुष धन रतन धर अघाही इहाँ।9

                                                                                                    जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
                                                                                                    बाल्को, कोरबा(छग)

                                                                                                    Saturday 1 August 2020

                                                                                                    गजल- चोवा राम 'बादल'

                                                                                                    गजल- चोवा राम 'बादल'

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम 
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन 
                                                                                                    212 212 212 212 

                                                                                                    पाँव हा तैं कहे आज खजुवात हे
                                                                                                    लागथे वोला सुरता अबड़ आत हे

                                                                                                    देवता मन तकों हार माने हवयँ
                                                                                                    सबले बलवान नारी के गा जात हे

                                                                                                    अब बिना घूस दे काम होवय नहीं
                                                                                                    देश ला वो घुना रात दिन खात हे

                                                                                                    बिच्छी कस मार दिच बात मा नोखिया
                                                                                                    का बताववँ गड़ी वो हा झन्नात हे

                                                                                                    वोट ला पा जथे फाँस के गोठ मा
                                                                                                    बइठे कुर्सी हमीं ला वो लतियात हे

                                                                                                    खाय मा फायदा हे करेला करू
                                                                                                    मीठ पेड़ा बिमारी ला बढ़हात हे

                                                                                                    दुरपती हे अभो अउ दुशासन घलो
                                                                                                    देख 'बादल' बता कोन घिल्लात हे


                                                                                                    गजलकार--चोवा राम 'बादल"
                                                                                                    हथबन्द, छत्तीसगढ़
                                                                                                          '

                                                                                                    गजल- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"


                                                                                                    गजल- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम 
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन 
                                                                                                    212 212 212 212 

                                                                                                    मान इज्जत कमा राख ईमान ला।
                                                                                                    झन गँवाबे कमाये तैं पहिचान ला।।

                                                                                                    फूल जइसे महक खुश्बू सच धरे।
                                                                                                    झूठ फाँसी बरोबर लिये जान ला।।

                                                                                                    छाँव सब ला मिले प्रेम बिरवा लगा।
                                                                                                    गोठ मधुरस घुरे बोल इंसान ला।।

                                                                                                    घट दुवारी बसे फेर भटके मनुज।
                                                                                                    चर्च मंदिर तलाशे वो भगवान ला।।

                                                                                                    पाठ मानवता पढ़ राख इंसानियत।
                                                                                                    बाँट ले दीन दुखिया दया दान ला।।

                                                                                                    देश सेवा बड़े जइसे माता पिता।
                                                                                                    बेटा बनके सच्चा बढ़ा शान ला।।

                                                                                                    सुन गजानंद तैं झन भुलाबे कभू।
                                                                                                    जन्म भुइँया अपन खेत खलिहान ला।।


                                                                                                    गजलकार- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"
                                                                                                    बिलासपुर ( छत्तीसगढ़ )

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी ग़ज़ल-सुखदेव सिंह'अहिलेश्वर'

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी ग़ज़ल-सुखदेव सिंह'अहिलेश्वर'

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन

                                                                                                    212 212 212 212

                                                                                                    हम अभी साथ हन साथ के बात कर
                                                                                                    दिल अगोरत हे दिल ले मुलाकात कर

                                                                                                    दूर बइठे हवच सॉंझ हो गे सजन
                                                                                                    फेर काली सहीं आज झन रात कर

                                                                                                    ललहुॅं हो गे सुरुज सर्द हो गे हवा
                                                                                                    मैं जुड़ावत हवॅंव तैं मोला तात कर

                                                                                                    मैं चकोरी असन तैं सजन चन्द्रमा
                                                                                                    हे शरद तैं मयारस के बरसात कर

                                                                                                    रीति के मार ले मैं तो घायल हवॅंव
                                                                                                    दे के भाषण तहूं झन तो आघात कर

                                                                                                    -सुखदेव सिंह'अहिलेश्वर'

                                                                                                    गजल-मनीराम साहू मितान

                                                                                                    गजल-मनीराम साहू मितान

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
                                                                                                    212  212  212  212

                                                                                                    एक बिगड़े उही हा बनइया हवय l
                                                                                                    नाँव जेकर मुरारी कन्हइया हवय l

                                                                                                    तैं लगा माथ धुर्रा सजा मूड़ मा,
                                                                                                    नीक माटी सबो के पलइया हवय l

                                                                                                    झन सताबे कभू मान करबे सदा,
                                                                                                    जेन सहिके दरद जग लनइया हवय l

                                                                                                    काम आवय नही गा समे आखरी,
                                                                                                    धन सबे हा घरे मा रहइया हवय l

                                                                                                    आसरा काय करबे हवय बोचकू,
                                                                                                    बस अपन पेट के वो भरइया हवय l

                                                                                                    मानबे बात झन वो लुहाथे सखा,
                                                                                                    बाँचथे खुद दुसर ला लड़इया हवय l

                                                                                                    दान जानय नही खाय तक ला घलो,
                                                                                                    बस रपोटत रथे धन धरइया हवय l

                                                                                                    गाँठ मन हे मनी दिल समाही कहाँ,
                                                                                                    राखथे छल कपट जर खनइया हवय l

                                                                                                    मनीराम साहू मितान

                                                                                                    गज़ल - अजय अमृतांशु

                                                                                                    गज़ल - अजय अमृतांशु

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
                                                                                                    212   212   212   212

                                                                                                    कतको कहि ले तभो वो कमावय नहीं।
                                                                                                    कोढ़िया होगे हे काम जावय नहीं।
                                                                                                     
                                                                                                    गरमी आ गे हवय लोग कलपत हवय।
                                                                                                    प्यास जनता के काबर बुझावय नहीं।

                                                                                                    उजरगे बागवानी मया के गड़ी।
                                                                                                    गीत मैना घलो गुनगुनावय नहीं।

                                                                                                    भौंरा बाँटी तिरी पासा के खेलई।
                                                                                                    सुरता ननपन के सिरतो भुलावय नहीं।

                                                                                                    जब ले सीमेंट हे आय बाजार मा।
                                                                                                    घर में खपरा सबो झन ग छावय नहीं।

                                                                                                    पीजा बर्गर झड़त देख फैशन नवा।
                                                                                                    बोरे बासी ल लइका हा खावय नहीं। 

                                                                                                    स्कूल अंग्रेजी मा भरती लइका करे।
                                                                                                    हिन्दी बोले घलो देख आवय नहीं ।

                                                                                                    मंडी मा हे सरत धान गेहूं चना।
                                                                                                    दाम बढ़िया फसल के वो पावय नहीं।

                                                                                                    नेता बनगे हवय जब ले केदार हा।
                                                                                                    गाँव वाले सबो वोला भावय नहीं।

                                                                                                    अजय अमृतांशु
                                                                                                    भाटापारा

                                                                                                    गजल- दिलीप कुमार वर्मा

                                                                                                    गजल- दिलीप कुमार वर्मा  

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम 
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
                                                                                                    212  212  212  212 

                                                                                                    देख तो राह में कोन आवत हवय। 
                                                                                                    जे दुपट्टा म मुखड़ा छुपावत हवय। 

                                                                                                    छोड़ सुध बुध ल गोपी चले जात हे। 
                                                                                                    कोन मधुबन म मुरली बजावत हवय। 

                                                                                                    तोर खाँसी ल तो सिर्फ खाँसी कहे। 
                                                                                                    मोर खाँसी करोना कहावत हवय। 

                                                                                                    काल के बात ला आज तक हे धरे। 
                                                                                                    देख कइसे के वो मुँह फुलावत हवय। 

                                                                                                    जेन रोटी तको ला चबा नइ सकय। 
                                                                                                    तेन कुकरी ल कइसे चबावत हवय।

                                                                                                    भाग गे छोड़ के ओ शहर देख ले। 
                                                                                                    जब सुने की सिपाही बलावत हवय। 

                                                                                                    ताज देखे हजारों लगे भीड़ हे। 
                                                                                                    पर ददा के न मरघट ल भावत हवय। 

                                                                                                    छेद बादर म होगे हवय लागथे। 
                                                                                                    धार मूसल सही ओ गिरावत हवय। 

                                                                                                    पान खाके न तँय थूक देबे सखा। 
                                                                                                    फैल जाही करोना बतावत हवय। 

                                                                                                    रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 
                                                                                                    बलौदाबाजार छत्तीसगढ़

                                                                                                    गजल- चोवा राम 'बादल'

                                                                                                    गजल- चोवा राम 'बादल'

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम 
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
                                                                                                    212  212  212  212 

                                                                                                    देख इंसान के तो गलत काम हे
                                                                                                    वो बिहनिया ले गटकत भरे जाम हे

                                                                                                    डरना कानून ले मनखे मन छोड़ दिन
                                                                                                    चोरी अउ लूट माते सरेआम हे

                                                                                                    मैं बधाई कहाँ ओला कब देय हौं
                                                                                                    फेर कइसे के अखबार मा नाम हे

                                                                                                    लागथे कैद कर लिन सुरुज ला उहाँ
                                                                                                    तब्भे रोज्जे हमर अँगना मा शाम हे

                                                                                                    साँप ताकत हे तितली तुरत भाग जा
                                                                                                    दाँत मा हे जहर जीभ हा लाम हे

                                                                                                    जेन हा बेसहारा हे संसार मा
                                                                                                    सिरतो मा ऊँकरो बर सिया राम हे

                                                                                                    सस्ता झन तैं समझ ककरो जी प्यार ला
                                                                                                    तोर तो हैसियत ले उपर दाम हे

                                                                                                    बाँह  मा चंदा थोकुन थिरा ले अभी
                                                                                                    घूम झन खोर मा देख ले घाम हे

                                                                                                    मूँड़ पीरा कहाँ तो मिटाही सगा
                                                                                                    याद रख वादा के नकली ए बाम हे

                                                                                                    चोवा राम 'बादल'
                                                                                                    हथबन्द, छत्तीसगढ़

                                                                                                    गजल- दिलीप कुमार वर्मा

                                                                                                    गजल- दिलीप कुमार वर्मा 
                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम 
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन 

                                                                                                    212  212  212  212 
                                                                                                    भोकवा कस रथे बात मानय नही। 
                                                                                                    सच गलत काय होथे ओ जानय नही।  

                                                                                                    देखथे रोज सपना बड़े होय के। 
                                                                                                    काम खातिर कभू खाक छानय नही।  

                                                                                                    खात रहिथे कलेवा कलेचुप सखी। 
                                                                                                    मोर खातिर कभू वो तो लानय नही। 

                                                                                                    वो भला हे भला चाहथे लोग बर। 
                                                                                                    काखरो बर वो गड्ढा ग खानय नही। 

                                                                                                    दूर रहिथे नशा पान ले ओ सदा।
                                                                                                    धर बुराई अपन घर मा नानय नही। 

                                                                                                    रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 
                                                                                                    बलौदाबाजार छत्तीसगढ़

                                                                                                    गजल- दिलीप कुमार वर्मा

                                                                                                    गजल- दिलीप कुमार वर्मा 
                                                                                                     बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम 
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन 
                                                                                                    212  212  212  212 

                                                                                                    गाँव के खार मा एक अधवार हे। 
                                                                                                    देवता जे बसे तेन रखवार हे। 

                                                                                                    झन उलझबे कका राह रेंगत कभू। 
                                                                                                    हर गली मा मिले एक मतवार हे। 

                                                                                                    वो कहाँ आय पाथे समे मा सखी।
                                                                                                    वो जिहाँ जाय तिहँचे तो लगवार हे।  

                                                                                                    हाथ धोके पड़े मोर पाछू हवय।
                                                                                                    तँय डरा झन मोरो तीर तलवार हे।

                                                                                                    का डराथच तहूँ आय तूफान ला।
                                                                                                    राम के नाम जब तोर पतवार हे। 

                                                                                                    रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 
                                                                                                    बलौदाबाजार छत्तीसगढ़

                                                                                                    ग़ज़ल--आशा देशमुख


                                                                                                    ग़ज़ल--आशा देशमुख


                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
                                                                                                    212  212  212  212

                                                                                                    आज बिजली हा कड़कत हवय जान ले।
                                                                                                    मोर हिरदे हा धड़कत हवय जान ले।

                                                                                                    देख खिड़की के पल्ला बने बन्द कर
                                                                                                    ये हवा मा हे खड़कत हवय जान ले।

                                                                                                    तँय कहाँ हस अभी तक तो नइहे खबर
                                                                                                    मोर आँखी हा फड़कत हवय जान ले।

                                                                                                    नानकुन होय खीला तभो हे जबड़
                                                                                                    काँच के बीच तड़कत हवय जान ले।

                                                                                                    देश के हाल बेहाल होवत हवय।
                                                                                                    चीज ला स्वार्थ हड़कत हवय जान ले।

                                                                                                    आजकल तो बफर के चलागन हवय
                                                                                                    लोग मरनी मा  झडक़त हवय जान ले।

                                                                                                    भूख मरगे सुहावय नही स्वाद हा।
                                                                                                    रोग राई हा भड़कत हवय जान ले।

                                                                                                    आशा देशमुख
                                                                                                    एनटीपीसी जमनीपाली कोरबा

                                                                                                    गजल- दिलीप कुमार वर्मा

                                                                                                    गजल- दिलीप कुमार वर्मा 
                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम 
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन 

                                                                                                    212  212  212  212  
                                                                                                    बिन बिहाये ले जिनगी बे रस हो जथे। 
                                                                                                    जे बिहाये त जिनगी ह फस हो जथे।

                                                                                                    शेर जइसे दहाड़त फिरे आदमी। 
                                                                                                    होय सादी तहाँ गाय कस हो जथे। 

                                                                                                    रोज दुतकार खावत रथे रात दिन। 
                                                                                                    जस कुकुर होय धोबी के तस हो जथे। 

                                                                                                    लानबे जब बिहा के ता लूना रथे। 
                                                                                                    चार दिन मा ही ओ हा तो बस हो जथे। 

                                                                                                    चार झन के ये परिवार अबतक रहे। 
                                                                                                    बाढ़ के कुछ हि दिन मा जी दस हो जथे। 

                                                                                                    रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 
                                                                                                    बलौदाबाजार छत्तीसगढ़

                                                                                                    ग़ज़ल -मनीराम

                                                                                                    ग़ज़ल -मनीराम

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
                                                                                                    212  212  212  212
                                                                                                    रोज डॅट के कमा काम बनहीं तभे ।
                                                                                                    घाम मा झन घमा काम बनही तभे।

                                                                                                    थोक पाके घलो मन मा संतोष कर,
                                                                                                    चाॅच झन तैं लमा काम बनही तभे।

                                                                                                    खूब होथे नफा दान कर ले लहू,
                                                                                                    पुन्य कर ले जमा काम बनही तभे।

                                                                                                    सोज अॅगरी कहाॅ घी निकलथे बता,
                                                                                                    थोरके तमतमा काम बनही तभे।

                                                                                                    मंच हाबय सजे भीड़ हाबय घलो,
                                                                                                    बाॅध दे तैं समा काम बनही तभे।

                                                                                                    खात भटका हवस तैं कहाॅ ले कहाॅ,
                                                                                                    राम ला‌ मन रमा काम बनही‌ तभे।

                                                                                                    लक्ष्य मा ध्यान‌ दे चेत करके बने,
                                                                                                    छोड़ सब डमडमा काम बनही तभे।

                                                                                                    नइ बनय जान‌ ले माय मोसी करे,
                                                                                                    काम सब ला थमा काम बनही तभे।

                                                                                                    तैं पनकबे मनी चार आसीस ले,
                                                                                                    जन हृदय मा अमा काम बनही तभे।

                                                                                                    मनीराम साहू 'मितान'

                                                                                                    गजल -दुर्गा शंकर इजारदार

                                                                                                    गजल -दुर्गा शंकर इजारदार

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
                                                                                                    212 212 212 212

                                                                                                    गाँव भर ला लड़ाई मतावत हवय,
                                                                                                    शेखी सरपंच अँव कहि बघारत हवय।।

                                                                                                    दूध बर लइका रोवत हे ग्वाला के घर,
                                                                                                    सेठ के लइका हा खीर खावत हवय।।

                                                                                                    गाय नौ लाख राखे के का फायदा,
                                                                                                    जब दही बर घरो घर ललावत हवय।।

                                                                                                    दुनिया आधुनिकता मे तो रंग गिस,
                                                                                                    आज जुन्ना सबो हर नँदावत हवय।।

                                                                                                    पीठ पीछू छुरी वो घुमत हे धरे,
                                                                                                    मीठ आगू मा जो गोठियावत हवय।।

                                                                                                    जीते जी बाप दाई ब डंडा धरे,
                                                                                                    अउ मरे बाद गंगा नहावत हवय ।।

                                                                                                    बात नेता के दुर्गा धरौ झन कभू,
                                                                                                    वोट पाये के खातिर रिझावत हवय।।

                                                                                                    दुर्गा शंकर ईजारदार
                                                                                                    सारंगढ़ (छत्तीसगढ़)

                                                                                                    गजल- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

                                                                                                    गजल- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम 
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन 
                                                                                                    212 212 212 212 

                                                                                                    बन सिपाही कलम ज्ञान ला बाँट ले।
                                                                                                    का गलत का सही बात ला छाँट ले।।

                                                                                                    मेहनत के सदा मान होथे इँहा।
                                                                                                    जोर जाँगर कमा ढेरा सुख आँट ले।।

                                                                                                    चार दिन के जवानी पहा सुख धरे।
                                                                                                    फिर बुढ़ापा पहाये हे दुख खाट ले।।

                                                                                                    प्रेम बिरवा लगा छाँव सुख जन मिले।
                                                                                                    काँटा कुमता गढ़े पाँव ना काट ले।।

                                                                                                    एक मनखे सबो एक हे तो लहू।
                                                                                                    भेद खाई बढ़े रात दिन पाट ले।।

                                                                                                    गजलकार- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"
                                                                                                    बिलासपुर ( छत्तीसगढ़ )

                                                                                                    ग़ज़ल - मनीराम साहू मितान

                                                                                                    ग़ज़ल - मनीराम साहू मितान

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
                                                                                                    212  212  212 212

                                                                                                    जान ले झूठ मा सच कटावय नही।
                                                                                                    पाट कतको समुन्दर पटावय नही।

                                                                                                    हाॅ समझबे तभे ये हवय काम के,
                                                                                                    ये गणित आय कब्भू रटावय नही।

                                                                                                    ऊॅच छानी बनाबे बने सोच के,
                                                                                                    खूब पाथे गरेरा खॅटावय नही।

                                                                                                    भर बने मोर संगी धरम ताल ला,
                                                                                                    पुन्य के जल कभू गा अॅटावय नही।

                                                                                                    बात सच ये हवय झट बिसरथे सखा,
                                                                                                    ज्ञान जब चार हित मा बॅटावय नही।

                                                                                                    आ अभरके उहू पाॅव गड़ही कभू,
                                                                                                    जेन काॅटा डगर के हटावय नही।

                                                                                                    बात खच्चित हवय कष्ट पाथे नॅगत,
                                                                                                    जेन‌ तिसना बढ़ाथे घटावय नही।

                                                                                                    साध‌ ले एक ला सब सधाही मनी,
                                                                                                    ज्ञान मिझरे ले झटकुन छॅटावय नही।

                                                                                                    मनीराम साहू 'मितान'

                                                                                                    ग़ज़ल--आशा देशमुख

                                                                                                    ग़ज़ल--आशा देशमुख

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन

                                                                                                    212  212  212 212

                                                                                                    सौ भले हे बड़े पाँच भारी पड़े
                                                                                                    ताम पीतल म हे काँच भारी पड़े।

                                                                                                    झूठ बइठे तराजू म क्विंटल किलो
                                                                                                    एक तिल के सहीं साँच भारी पड़े।

                                                                                                    डालडा हा जमे सोझ निकले नही।
                                                                                                    नानकुन अंगरा आँच भारी पड़े।

                                                                                                    लाख रुपिया के जानव सुबे के हवा
                                                                                                    बैद डॉक्टर दवा जाँच भारी पड़े।

                                                                                                    रेल लोहा हवय लाद लोहा चलय
                                                                                                    जाय पटरी उखड़ खाँच भारी पड़े



                                                                                                    आशा देशमुख
                                                                                                    एनटीपीसी जमनीपाली कोरबा

                                                                                                    ग़ज़ल--आशा देशमुख

                                                                                                    ग़ज़ल--आशा देशमुख

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
                                                                                                    फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन

                                                                                                    212  212  212 212

                                                                                                    चोर चोरी करत खाँस भारी पड़े।
                                                                                                    घाव तलवार ले फाँस भारी पड़े।

                                                                                                    ये सही आय मुस्कान सुघ्घर लगय
                                                                                                    पर विपत में खुशी हाँस भारी पड़े।

                                                                                                    सोन चाँदी महल धन हवय तन सुघर
                                                                                                    ये सबो चीज मा साँस भारी पड़े।

                                                                                                    दिन बिताये रे सागौन के खेत मा
                                                                                                    आख़री मा सखा बाँस भारी पड़े।

                                                                                                    आय पहुना बनायेंव सोंहारी बरा
                                                                                                    आज दारू नशा माँस भारी पड़े।


                                                                                                    आशा देशमुख
                                                                                                    एनटीपीसी जमनीपाली कोरबा

                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल -जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"



                                                                                                    छत्तीसगढ़ी गजल -जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                                                                                                    बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम 
                                                                                                    फ़ाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन 

                                                                                                    212 212 212 212  

                                                                                                    तैं बुरा अउ भला सबला जानत हवस।
                                                                                                    फेर नइ बात कखरो रे मानत हवस।1

                                                                                                    आन बर बड़ मया पलपलावत हवै।
                                                                                                    देख दाई ददा तोप तानत हवस।।2

                                                                                                    जाग गे सोय हा, आत हे खोय हा।
                                                                                                    तैं डहर धर गलत खाक झानत हवस।3

                                                                                                    मोल जानेस नइ तैं समय के कभू।
                                                                                                    आग लगगे कुँवा तब रे खानत हवस।4

                                                                                                    का करत हस करम तैं अपन देख ले।
                                                                                                    सत मया मीत अउ रीत चानत हवस।5

                                                                                                    बह जथे धार हा पथ बनाके खुदे।
                                                                                                    रोक के धार नदियाँ उफानत हवस।6

                                                                                                    आय हे जातरी खुद चपक झन नरी।
                                                                                                    तैं दवा कहिके दारू ला लानत हवस।7

                                                                                                    जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
                                                                                                    बाल्को,कोरबा (छत्तीसगढ़)

                                                                                                    गजल

                                                                                                     गजल पूस के आसाढ़ सँग गठजोड़ होगे। दुःख के अउ उपरहा दू गोड़ होगे। वोट देके कोन ला जनता जितावैं। झूठ बोले के इहाँ बस होड़ होगे। खात हावँय घूम घुम...