ग़ज़ल-अजय अमृतांसु
बहरे मुतकारिब मुसमन सालिम
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
122 122 122 122
हवै कोड़िहा वो जमाना बताथे।
करै ना बुता बस बहाना बनाथे।
सुनै ना बताबे सही बात काँही।
अपन गोठ खाली उही ला सुहाथे।
पहावत सरी दिन अलाली करत गा।
गरीबी हवै जी तभो बैठ खाथे
नहीं समझै कतको बता बात वोला।
कहूँ बैठ खाबे जिनिस हा सिराथे ।
लपरहा हवै रोज मारे फुटानी।
कहाँ काम धंधा करे ला ग जाथे।
कहूँ कोनो कोती घुमाते नहीं तैं।
हवस बैठे काबर ग काया खियाथे।
धरे हावै गाड़ी ल सिरतो अनाड़ी।
तभे अंते तंते चला के धँसाथे।
अजय अमृतांशु
बहरे मुतकारिब मुसमन सालिम
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
122 122 122 122
हवै कोड़िहा वो जमाना बताथे।
करै ना बुता बस बहाना बनाथे।
सुनै ना बताबे सही बात काँही।
अपन गोठ खाली उही ला सुहाथे।
पहावत सरी दिन अलाली करत गा।
गरीबी हवै जी तभो बैठ खाथे
नहीं समझै कतको बता बात वोला।
कहूँ बैठ खाबे जिनिस हा सिराथे ।
लपरहा हवै रोज मारे फुटानी।
कहाँ काम धंधा करे ला ग जाथे।
कहूँ कोनो कोती घुमाते नहीं तैं।
हवस बैठे काबर ग काया खियाथे।
धरे हावै गाड़ी ल सिरतो अनाड़ी।
तभे अंते तंते चला के धँसाथे।
अजय अमृतांशु
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