गजल-जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
*बहरे रमल मुसम्मन मशकूल सालिम मज़ाइफ़ [दोगुन]*
*फ़यलात फ़ाइलातुन फ़यलात फ़ाइलातुन*
*1121 2122 1121 2122*
चुका गेहे मोर पारी तभो दाँव हा चलत हे।
बने मैं हवँव ग सिधवा हुँवा हाँव हा चलत हे।
सबे मनखे मन बदलगे ठिहा ठाँव तक बदलगे।
लगे देख के शहर बर सजे गाँव हा चलत हे।
कहूँ चुप रबे ता कोई कभू जाने तक नही जी।
करे ताम झाम जउने उही नाँव हा चलत हे।
दिखे बोंदवा धरा हा कटे बाग बन हरा हा।
तिपे घाम बड़ सुरुज के खुशी छाँव हा चलत हे।
गरी खेत खार घर बर बिछा दे हवे व्यपारी।
गरी मा फँसे के खातिर ठिहा ठाँव हा चलत हे।
जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)
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