गजल-जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
*बहरे रमल मुसम्मन मशकूल सालिम मज़ाइफ़ [दोगुन]*
*फ़यलात फ़ाइलातुन फ़यलात फ़ाइलातुन*
*1121 2122 1121 2122*
रहे जीत जेन कोती, उती हार होत हावे।
हरू होत हे गलत हा, बने भार होत हावे।
हवे रोक बढ़िया पथ मा, लगे जंग सत सुमत मा।
बदी बैर भोथरातिस, तिही धार होत हावे।
कहे कोन तोला का अब, दिये नाक तैं कटा अब।
बने बूता नइ बढ़त हे, बुरा चार होत हावे।
ये समै अजब गजब हे, बने छोड़ बाकि सब हे।
खुदे लड़भड़ाये जेहा, ते अधार होत हावे।
कते तीर मिलही मरहम, कते तीर भागही गम।
हवे एक ठन जे आफत, ते हजार होत हावे।
ठिहा खेत बन बारी, सबे मा रही व्यपारी।
का बने समै हबरही, का करार होत हावे।
चुका नइ सके ता कर्जा, मरे छोट मोट मनखे।
नपा लोन बड़ बड़े मन, तड़ी पार होत हावे।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)
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