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Friday, 20 November 2020

गजल- मनीराम साहू‌ 'मितान'

 गजल-  मनीराम साहू‌ 'मितान'


बहरे रजज़ मुसम्मन सालिम

मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन


2212 2212 2212 2212 


घर द्वार अँगना खोर मा कचरा बने लगथे कहाँ।

धरसा सड़क पग बाट मा पखरा बने लगथे कहाँ।


बनथे बनौकी धीर मा तन मन बिगड़थे क्रोध मा,

जम्मो अपन‌ के बीच मा झगरा बने लगथे कहाँ।


हे सावधानी बड़ जरूरी जब चलन हम बाट मा,

बाहन चलावत राह मा खतरा बने लगथे कहाँ।


चाहे रहय जी भोग छप्पन होय भाजी भात या,

हरि ला करे अरपन बिना सँथरा बने लगथे कहाँ।


जप राम माया एक सँग खुद घात मनखे कर जथे,

खाये महेरी खीर हा सँघरा बने लगथे कहाँ।


जब सोच होथे एक कस मनखे मितानी कर जथें,

सत बाट चलथे तेन ला लबरा बने लगथे कहाँ।


मौसम हिसाबत काम जे करथे सदा सुख पाय जी,

सुन ले मनी दिन‌ झाँझ मा कमरा बने लगथे कहाँ।


- मनीराम साहू‌ 'मितान'

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