गजल- दिलीप कुमार वर्मा
*बहरे रजज़ मुसम्मन सालिम*
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212 2212 2212 2212
खुद जाग के सब ला जगा होही बिहनिया तब कका।
कर योग तँय आलस भगा होही बिहनिया तब कका।
पढ़ लिख बने हुसियार बन सब मोह ला तँय छोड़ दे।
लालच म आ के झन ठगा होही बिहनिया तब कका।
बन कोढ़िया झन बइठ तँय चारी करत दिन भर इहाँ।
चल काम मा मन ला लगा होही बिहनिया तब कका।
मन तोर बड़ अँधियार हे सब के बुरा बस सोंचथस।
आही सुरुज बनके सगा होही बिहनिया तब कका
मन आस रख कर काम तँय मिलही सफलता एक दिन।
अंतस जले जब बगबगा होही बिहनिया तब कका।
रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार छत्तीसगढ़
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