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Thursday, 24 December 2020

गजल- दिलीप कुमार वर्मा

 गजल- दिलीप कुमार वर्मा


*बहरे रजज़ मुसम्मन सालिम*

मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन


2212 2212 2212 2212   


मरना हवय सब जानथे तब ले डरावत रात दिन। का होय काली सोंच के जिनगी दरावत रात दिन। 


सब मोह माया मा फँसे किंजरत रथे दौरी असन। 

बाती असन जंजाल मा मनखे  बरावत रात दिन। 


मन मैल अंतस मा भरे इरखा जरावत तन हवय।

धुर्रा लगे झन देंह मा कुरता झरावत रात दिन।


सब पाप ला अंतस भरे ढोंगी बने ज्ञानी हवय।

भगवान के बड़ भक्त बन पूजा करावत रात दिन। 


दिनमान सब ला ज्ञान दे रसता बने बतलात हे।

अँधियार मा बइठे तहाँ दारू ढरावत रात दिन।  


जे उम्र म भगवान के करना रहिस हावय भजन। 

किंजरत हवय  वो मनचला आँखी चरावत रात दिन।


बढ़ गे हवय अब चोर मन हर रात तारा टोरथे।

जागत रहव कहिके सदा हाँका परावत रात दिन। 


रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार छत्तीसगढ़

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