गजल- दिलीप कुमार वर्मा
बहरे रमल मुसम्मन सालिम
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन
2122 2122 2122 2122
तोर ले हे मोर रिस्ता मन तभे अकुलात हावय।
चाह मन मा नइ हवय आँखी मगर इतरात हावय।
मोला जाना दूर हे पर मन कथे थोरिक ठहर जा।
मोर रसता ओ डहर तन तोर कोती जात हावय।
देख झन मुड़ मोर कोती मोर साहस बढ़ सकत हे।
तोर रुक-रुक रेंगना ले मोर मन ललचात हावय।
छम छमाछम बाज के मोला बलावत तोर पैरी।
तोर बेनी मा लगे गजरा तको ममहात हावय।
अब लहुट ना हे मगर घिलरत हवँव मँय तोर पाछू।
तोर अइठे केस मोला जोर ले उलझात हावय।
कोन अस मोला बता दे काय हावय नाँव गोरी।
गाँव कतका दूर बाँचे देख बदरी छात हावय।
ये मया जंजाल होगे छोड़थौं पर नइ छुटत हे।
डोर बिन बँधना बँधाये का जनी का बात हावय।
रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार
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