गज़ल- जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बहरे रमल मुसम्मन सालिम
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन
2122 2122 2122 2122
जाड़ मा मैंहर जमे रेंहेंव, गरमी पा गलत हौं।
मैं पिघल के पथ बनाके, ठौर खोजत अब चलत हौं।
लाम गेहे खाँधा डारा, नाचथौं मैं हाथ उँचाके।
तोर उगाये छोट बिरवा, आज फूलत अउ फलत हौं।
मार पथरा फर लगे तब, पर उदिम कर फर लगे बर।
का भरोसा काट देबे, बिन हलाये मैं हलत हौं।
साँस के दिन तक रही अब, का ठिकाना जिंदगी के।
जेल के भीतर धँधाये बिन हवा पानी पलत हौं।
जोगनी के राज मा मैं, रोशनी धरके करौं का।
झट सुँई घुमगे समय के, बिन उगे मैंहा ढलत हौं।
मौत औं मैं मौन रहिथौं, नापथौं मैं काम बूता।
तीर मा झट आ जहूँ बस, आज कल कहिके टलत हौं।
भूख मारे के उदिम हे, दर्द सारे के उदिम हे।
चांद तारा तैं अमर, मैं पानी मा भजिया तलत हौं।
जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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