गज़ल- अजय अमृतांशु
*बहरे हज़ज मुसद्दस महजूफ़*
*मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन*
1222 1222 122
मया के तरिया अब काबर अँटत हे।
हवय इरखा अबड़ भाई बँटत हे।
भुलागिन सब ददा दाई के दुख ला।
मया के मोल अब काबर घटत हे।
गरीबी ला हटाये के कसम हे।
ग़रीबी अब तो कागज मा हटत हे।
खुसरगे चाइना सामान घर घर।
कहाँ गारंटी एको नइ खँटत हे।
लड़त देरानी जेठानी अकारण।
बड़े परिवार ककरो नइ पटत हे।
अजय अमृतांशु
भाटापारा (छत्तीसगढ़)
No comments:
Post a Comment