गजल-दिलीप कुमार वर्मा
बहरे रमल मुसम्मन सालिम
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन
2122 2122 2122 2122
ओढ़ के सुत जा रजाई जाड़ अबड़े बाढ़ गे हे।
मान कहना मोर भाई जाड़ अबड़े बाढ़ गे हे।
काँप गे धरती तको हर हे सुरज बादर लुकाये।
देख के झन कर ढिठाई जाड़ अबड़े बाढ़ गे हे।
देख सर्दी हो जही खाँसी तको हर हो सकत हे।
खाव झन अब तो खटाई जाड़ अबड़े बाढ़ गे हे।
हाथ मुँह जम्मो चटक गे पाँव तक चेर्रा हनत हे।
साँच कहिथे मोर दाई जाड़ अबड़े बाढ़ गे हे।
काँप जाथे तन बदन हर पाँव पानी मा धरे ले।
छोड़ दे अब तो नहाई जाड़ अबड़े बाढ़ गे हे।
पेंड़ मा जम गे बरफ हर देख तरिया नइ दिखत हे।
कोन रसता अब बताई जाड़ अबड़े बाढ़ गे हे।
सब तरफ फइले बरफ हे जीव एक्को नइ दिखत हे।
अउ बता कतका गिनाई जाड़ अबड़े बाढ़ गे हे।
रचनाकार-दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार छत्तीसगढ़
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