ग़ज़ल - मनीराम साहू मितान
बहरे रमल मुसमन महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
बाढ़गे अब सब जिनिस के दाम मनखे का करय।
हे सबो हलकान नित दिन आम मनखे का करय।
जाड़ हा जी गय लुकाये कोन जानय हे कहाँ,
बड़ उराठिल लागथे ये घाम मनखे का करय।
जात हे छेंवात अब तो बाढ़गे हावय उमर,
नइ मिलत हे खोजथें जी काम मनखे का करय।
लागथे मिहनत अबड़ पर भाव नइ पावय फसल,
होत हे नित दिन उधारी लाम मनखे का करय।
रात के हे राज देखव मुँह लुकावत दिन फिरय,
आ जथे लउहे कुदावत शाम मनखे का करय।
ये महामारी बढ़त हे अति करत हे रात दिन,
नइ मिलत हे कुछु दवा हे राम मनखे का करय।
बाप के पूँजी उड़ावय मूर्ख लइका रात दिन,
डूब गय सिरतो मनी के नाम मनखे का करय।
- मनीराम साहू 'मितान'
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