गज़ल - अजय अमृतांशु
बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
212 212 212 212
कतको कहि ले तभो वो कमावय नहीं।
कोढ़िया होगे हे काम जावय नहीं।
गरमी आ गे हवय लोग कलपत हवय।
प्यास जनता के काबर बुझावय नहीं।
उजरगे बागवानी मया के गड़ी।
गीत मैना घलो गुनगुनावय नहीं।
भौंरा बाँटी तिरी पासा के खेलई।
सुरता ननपन के सिरतो भुलावय नहीं।
जब ले सीमेंट हे आय बाजार मा।
घर में खपरा सबो झन ग छावय नहीं।
पीजा बर्गर झड़त देख फैशन नवा।
बोरे बासी ल लइका हा खावय नहीं।
स्कूल अंग्रेजी मा भरती लइका करे।
हिन्दी बोले घलो देख आवय नहीं ।
मंडी मा हे सरत धान गेहूं चना।
दाम बढ़िया फसल के वो पावय नहीं।
नेता बनगे हवय जब ले केदार हा।
गाँव वाले सबो वोला भावय नहीं।
अजय अमृतांशु
भाटापारा
No comments:
Post a Comment