गजल- दिलीप कुमार वर्मा
बहरे हज़ज मुसम्मन अशतर मक़्बूज़, मक़्बूज़, मक़्बूज़
फ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
212 1212 1212 1212
राम नाम के सिवा कहाँ इहाँ अधार हे।
राम नाम ला जपे तभेच बेड़ा पार हे।
आदमी बिना कहे रहे सके नहीं इहाँ।
चुगली मा रमे रथे मिले जहाँ भी चार हे।
जेन भागथे इहाँ पढ़े लिखे के नाम ले।
रोज के बहाना मार देत जी बुखार हे।
आदमी के बाढ़ आय रोके ले रुके नही।
जेन कोत देखबे कतार ही कतार हे।
आदमी न आदमी के काम आय आज कल।
आदमी ही आदमी ल मारथे कटार हे।
गाँव छोड़ के शहर म जेन भी रहत हवे।
गाँव के रहइया ला कहे कि वो गँवार हे।
मोर गाँव मोर देश मोर खेत कह जिये।
तोर जान जाय ले रहे नहीं तुँहार हे।
खेत खार गाँव छोड़ लोग जात हे शहर।
कोन देखथे किसान पाँव मा कुठार हे।
रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार
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