गजल-अरुणकुमार निगम
*बहरे हज़ज मुसम्मन अशतर मक़्बूज़, मक़्बूज़, मक़्बूज़*
*फ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन*
*212 1212 1212 1212*
राजनीति आज के बजार हाट कस लगे
हर दुकान के रिवाज लूट-पाट कस लगे।
गाँव छोड़ के मजूर मन चलिन शहर डहर
गाँव रोजगार बिन मसान घाट कस लगे।
आम आदमी के भाग मा बजट के सुख कहाँ
नाम के मिले जे छूट भेल-चाट कस लगे।
फूँक झोपड़ी अपन शरण मा सन्त के चलव
संत के बचन सदा सरग-कपाट कस लगे।
देश के अनेकता मा एकता हवै "अरुण"
तोर काशमीर मोर मैनपाट कस लगे।
*अरुण कुमार निगम*
(कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे गीत के धुन गुनगुनाये ले ये बहर मा लिखना आसान होही)
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