ग़ज़ल - जीतेन्द्र वर्मा "खैरझिटिया"
*बहरे हज़ज मुसम्मन अशतर मक़्बूज़, मक़्बूज़, मक़्बूज़*
*फ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन*
*212 1212 1212 1212*
आय हे बसंत देख बाग मा बहार हे।
फूल के सुगंध हा पवन उपर सवार हे।1
मौर बाँध आमा हा मुचुर मुचुर गजब करे।
लाल लाल रंग मा पलास के सिंगार हे।2
भौंरा गुनगुनात हे ता तितली मन लुभात हे।
कूह कूह कूह कोयली करत पुकार हे।3
माड़े हे चना गहूँ मसूर सरसो अरसी हा।
साग भाजी तक सजे हे खेत जस बजार हे।4
आइना सही लगे नदी कुँवा के नीर हा।
बन गगन के रूप मा चमक धमक सुधार हे।5
राग छेड़ के पवन गवात हे नचात हे।
पात सुर मिलात हावे जइसे रे सितार हे।6
घाम नइहे जाड़ नइहे नइहे संसो अउ फिकर।
सबके मनके भीतरी उठे खुशी गुबार हे।7
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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