गजल-जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
*बहरे हजज़ मुसमन अख़रब मक्फ़ूफ मक्फ़ूफ मक्फ़ूफ महज़ूफ़*
*मफ़ऊल मुफ़ाईल मुफ़ाईल फ़ऊलुन*
*221 1221 1221 122*
सुख चैन सबो तोर सखा भंग हो जाही।
का आन खुदे से घलो यदि जंग हो जाही।
बन पुरवा बसंती कहूँ बन बाग नचाबे।
बेरंग पड़े जिनगी हा सतरंग हो जाही।
चलबे बने पथ मीत मया सत धरे सबदिन।
डर दुःख दरद तोर निचट तंग हो जाही।
कोठी मा रतन धन रही अउ बाँह मा ताकत।
ता बैरी जमाना घलो हा संग हो जाही।
सब बर मया धरके बढ़े चलबे सबे दिन तैं।
दुश्मन घलो हा देख तोला दंग हो जाही।
चंगा रही तनमन तभे देवारी चमकही।
होरी मा सराबोर सरी अंग हो जाही।
जब घेर लिही गम हा डराही नही मन हा।
गमगीन जिया मा घलो तब उमंग हो जाही।
जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)
No comments:
Post a Comment