,*ग़ज़ल --आशा देशमुख*
*बहरे हज़ज मुसम्मन अशतर मक़्बूज़, मक़्बूज़, मक़्बूज़*
*फ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन*
*212 1212 1212 1212*
मोर सँग तो आजकल कलम अबड़ रिसात हे।
भाव भागथे कती इहाँ उहाँ लुकात हे।
हाथ पाँव जोड़के मुहर लगाय बर कहिन
पाँच साल हो गए हे अंगूठा दिखात हे।
काल काल हे कहत न आय काल हा कभू
ठेलहा वो बैठ के अपन समय गंवात हे।
तेँ रहा अपन जगह हमू हवन अपन जगह
पाक साफ रह बने कुचाल नइ सुहात हे।
जानथन रे ढोरगा कतिक अकन भरे हवच
देख तो समुंद के चरू घलो लजात हे।
आशा देशमुख
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