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Saturday 30 January 2021

गजल- दिलीप कुमार वर्मा

 गजल- दिलीप कुमार वर्मा


बहरे हज़ज मुसम्मन अशतर मक़्बूज़, मक़्बूज़, मक़्बूज़

फ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन


212 1212 1212 1212  


जाड़ बाढ़ गे हवे बता नहाये जाय बर। 

का जरूरी हे कका नहाना भी ह खाय बर?


छोड़ के रजाई जाना हर तको न भात हे। 

जान बूझ के मरे ल जाय का नहाय बर। 


हाथ गोड़ काँपथे सुने कका ये जाड़ के।  

कोन हर बनाये जाड़ ला भला सताय बर। 


दिन घलो निकल जथे फुसुर-फुसुर रुके नही। 

ये सुरुज तको बने न आय जी तपाय बर। 


दिन बिताव शॉल ओढ़ भुर्री ताप के भले। 

रात लाद कतको कम हे जाड़ ला भगाय बर।


मुँह तको धुले नही उठे नही हे खाट ले।

रात के पहात ही लड़े बिहानी चाय बर। 


घुरघुरासी लागथे नहाय बस के नाम ले। 

पर रथे तियार मन ह आनी बानी खाय बर।


रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार

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