गजल- अजय अमृतांशु
*बहरे रजज़ मुरब्बा सालिम*
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212 2212
सरकार हे बेहाल जी ।
जनता मरत बिन काल जी।
मछरी फँसे एको नहीं
डारे हवय बड़ जाल जी।
कोरोना बैरी फैले हे,
बीतत हवय ये साल जी।
सिधवा ह मुँह ला ताकथे,
लबरा उड़ावत माल जी।
अपराधी घूमत रोड मा।
सत्ता बने हे ढाल जी।
दिन रात चक्कर नेट के।
बिगड़त हवय अब चाल जी।
परके भरोसा मा खड़े।
ठोंकत हे बैरी ताल जी ।
अजय "अमृतांशु"
भाटापारा (छत्तीसगढ़)
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