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Friday 18 September 2020

गजल-- दिलीप कुमार वर्मा

 गजल-- दिलीप कुमार वर्मा 

बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महजूफ़ 

मुफ़ाइलुन फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फेलुन

1212  1122  1212  22 


कपाट बंद हे तब ले हवा ह आ जाथे। 

लगे ले पूस महीना सबो जड़ा जाथे। 


कतेक राखबे मछरी लुकाय रँधनी मा। 

मिले जे गंध बिलाई चुरा के खा जाथे। 


गरीब मस्त हे चिंता करे नही कल के। 

कमाय रोज तहाँ खाय बर ओ पा जाथे। 


अमीर सोंचथे कइसे बढ़ावँ बिजनस ला। 

करे प्रपंच ओ भारी तभो ठगा जाथे। 


चुनाव आय ले घर-घर  बनत रथे कुकरी। 

समझ से हे परे पइसा कहाँ ले पा जाथे।


कभू-कभू करे किरपा हमार कुटिया मा।

बिना घटा के ये बरसा कहाँ ले आ जाथे। 


"दिलीप''तोर कहे कोन भला मानत हे। 

ते ओ धुआँ रहे जे ठंड आय छा जाथे। 


रचानाकार- दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार छत्तीसगढ़

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