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Sunday 13 September 2020

गजल- दिलीप कुमार वर्मा

 गजल- दिलीप कुमार वर्मा 


बहरे मज़ारिअ मुसम्मन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महजूफ़  

मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईलु फ़ाइलुन 

221  2121  1221  212 


सरकार के जमीन मा नीयत गड़ात हे। 

तरिया सड़क पहाड़ ओ सब ला पचात हे।


गुनवान मन तको इहाँ गदहा बने फिरे। 

गदहा उड़ाय खीर गुनी घाँस खात हे। 


करथन कहे ओ काम कहूँ मेर नइ दिखय। 

चारो डहर विनाश के अँधियार रात हे। 


बन गे रहिस सड़क ह जी कागज सबूत हे। 

चोरी करे हे चोर ह ये साँच बात हे। 


खुद के पता रहे नही का मौत ओ मरे।

सब के भविष्य देख जे रसता बतात हे। 


बचपन ले पाल पोस के जेला करे बड़े। 

बेटा उही ह बाप ल मारत ग लात हे।  


कतको कहे "दिलीप'' कहाँ लोग मानथे।  

 करथे नशा ह नाश तभो ढोंके जात हे।


रचानाकार- दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार छत्तीसगढ़

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