गजल-मनीराम साहू 'मितान'
बहरे हज़ज मुसम्मन मक़्बूज़
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
1212 1212 1212 1212
सजाय खूब देह हे हृदय हवय कबाड़ गा।
भुले हवय मया पिरित करत अपन बिगाड़ गा।
धुआँ धुआँ दिखत हवय जहर भरे हवय पवन,
करय जी चेत कोन अब हवय सबो जुगाड़ मा।
लकर धकर रथे सदा सबर कहाँ हे कोन ला,
अपन बनत हवय कहूँ त तिल बनाँय ताड़ गा।
बदल गइँन सबो इहाँ समे अपन भुलाँय हे,
डराय पूस मास मा लुकाय देख जाड़ गा।
बने सबो हे देख लव मनुज सबन के ग्रास जी,
नदी पहाड़ खेत सब तलाब पेड़ झाड़ गा।
बढ़ात द्वेश खूब हें लड़त हवँय जी ताज बर,
बने जे लोकतंत्र घर करत हवँय उजाड़ गा।
चलाय टाँगी पाँव मा मुरुख हवय मितान हा,
बुता चिटिक करय नही भले रहय असाड़ गा।
- मनीराम साहू 'मितान'
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