Total Pageviews

Friday, 17 July 2020

गजल दिलीप वर्मा

गजल  दिलीप वर्मा

बहरे हज्ज़ मुसम्मन सालिम
मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन
1222 1222 1222 1222

सदा जे खाय हे पिज़्ज़ा कहे ये भात का होथे
रहे जे बंद कुरिया मा कहे बरसात का होथे

कभू सुनसान जंगल मा भटकबे रात के बेरा
समझ आही तभे भाई भयानक रात का होथे

कमाये तोर पूंजी ला कहूँ भाई हड़प लेही
समझ मा आ जही संगी करेजा घात का होथे

बहुत बरजे न मानय जेन लइका हर रहे उदबित
जरे जब हाथ हा चट ले समझथे तात का होथे।

बिना मैदान मा आये विजेता जेन बन बइठे
लपेटा में कभू आथे समझथे मात का होथे

भरे अभिमान मा राजा सतावय रोज जनता ला
हरा दे जेन दिन जनता त जानय लात का होथे

बताये बात ला सुन के बहुत झगरा मता देथे
समझ ओ बाद मा आथे,सहीं मा बात का होथे।

रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार छत्तीसगढ़

No comments:

Post a Comment

गजल

 गजल 2122 2122 2122 पूस के आसाढ़ सँग गठजोड़ होगे। दुःख के अउ उपरहा दू गोड़ होगे। वोट देके कोन ला जनता जितावैं। झूठ बोले के इहाँ बस होड़ होगे। खा...