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Sunday, 5 July 2020

गजल- दिलीप कुमार वर्मा

गजल- दिलीप कुमार वर्मा

बहरे मुतदारिक मुसम्मन अहज़ज़ु आख़िर
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ा
212 212 212 2

काम कहिबे त टूरा मटकथे।
जोर से पाँव तक ला पटकथे। 

देश मा बाढ़े बेरोजगारी।
काम खातिर हजारों भटकथे।

बाढ़ गे हे नशा खोर भारी। 
रोज गुटखा गटागट गटकथे। 

रूप मा तोर बइहा बने हँव।
फेर भैंगा जे आँखी खटकथे।

तोर घर रात मँय नइ तो आवँव।
ओ गली के कुकुर मन हटकथे।

चार टूरा गली तोर देखँव।
का बता तोर सेती फटकथे?

तय करे नइ सकय जेन मंजिल।
तेन मनखे अधर मा लटकथे।

बीच मा जे करत हे दलाली।
रोज कतकोन ला ओ झटकथे। 

जे दुसर के करे जी बुराई।
ओखरे देह चिखला छटकथे।

बिन सुरक्षा बचाये ल जावय।
तेन दलदल म उँहचे सटकथे।

झन छुआछूत ला मान भाई।
मिल सबो ले मया बस चटकथे। 

रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार छत्तीसगढ़

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