गजल- दिलीप वर्मा
बहरे हज्ज़ मुसम्मन सालिम
मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलूनर
1222 1222 1222 1222
पढ़े ला जब कबे दिन रात लइका बोर हो जाथे
दिखाथे बस पढ़त जइसे निचट फिर ढोर हो जाथे
करे नइ काम जाँगर चोर कतको झन रथे ठलहा।
उदाली मार सिरवाथे तहाँ ले चोर हो जाथे।
अलाली जे किसानी मा करे परथे तहाँ परिया।
करे बिन काम खेती खार हर कमजोर हो जाथे।
दिखे बस पलहरा जइसे धुँआ जब छाय ऊपर मा
मिले चारों डहर ले झूम के घनघोर हो जाथे।
रहे कतको अँधेरी रात झन घबरा कभू भाई।
पहाती रात के सुकुवा दिखे फिर भोर हो जाथे।
मया अँधरा बना देथे समझ आवय नही काँही।
मिलन के धुन रथे तब साँप तक हर डोर हो जाथे
रहे अच्छा बुरा सन्देस फइले आग के जइसे।
लुकाये नइ सकय कोनो शहर भर शोर हो जाथे।
रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार छत्तीसगढ़
बहरे हज्ज़ मुसम्मन सालिम
मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलूनर
1222 1222 1222 1222
पढ़े ला जब कबे दिन रात लइका बोर हो जाथे
दिखाथे बस पढ़त जइसे निचट फिर ढोर हो जाथे
करे नइ काम जाँगर चोर कतको झन रथे ठलहा।
उदाली मार सिरवाथे तहाँ ले चोर हो जाथे।
अलाली जे किसानी मा करे परथे तहाँ परिया।
करे बिन काम खेती खार हर कमजोर हो जाथे।
दिखे बस पलहरा जइसे धुँआ जब छाय ऊपर मा
मिले चारों डहर ले झूम के घनघोर हो जाथे।
रहे कतको अँधेरी रात झन घबरा कभू भाई।
पहाती रात के सुकुवा दिखे फिर भोर हो जाथे।
मया अँधरा बना देथे समझ आवय नही काँही।
मिलन के धुन रथे तब साँप तक हर डोर हो जाथे
रहे अच्छा बुरा सन्देस फइले आग के जइसे।
लुकाये नइ सकय कोनो शहर भर शोर हो जाथे।
रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार छत्तीसगढ़
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